मुझे कुछ करना है
मन में उठने वाले भावों को लिपिबद्ध करने का एक लघु प्रयास
हिप्नोटाइज - थ्रिलर उपन्यास ( भाग - 1 )
चलो आज फिर कुछ करते हैं
चलो आज फिर कुछ करते है
मरी उम्मीदों को जिन्दा करके
नाकामियों के अँधेरो से
कामयाबी के उजालों की ओर बढ़ते हैं
चलो आज फिर कुछ करते हैं।
सोया पुरुषार्थ जगाकर ,
अलसाये भाग्य को आँखें दिखाकर ,
मंजिल की ओर बढ़ते हैं ,
चलो आज फिर कुछ करते हैं।
राह रोक खड़ी चट्टानों को तोड़कर ,
कर्मों के वेग को उचित दिशा में मोड़कर ,
लहूलुहान हुए पैरों से ,
शूलों के मार्ग पर चलते हैं ,
चलो आज फिर कुछ करते हैं।
ये कैसी जिन्दगी
मर मरकर जी रहा हूँ
जी जीकर मर रहा हूँ
ए जिन्दगी तू ही बता दे
ये मैं क्या कर रहा हूँ।
तबाह जिन्दगी को ढो रहा हूँ
औरों की खातिर मैं खुद को खो रहा हूँ।
कर्म मरणासन्न है
भाग्य बैठा बिछाए आसन है
न पग बढ़ा पा रहा हूँ
न पीछे हटा पा रहा हूँ
बस कल जहाँ था
आज वहीं खड़ा पछता रहा हूँ।
कर्म तो कभी किये नहीं मैंने
जाने किसके कर्मों की सजा पा रहा हूँ।
फैसला अपनी जिन्दगी का ले नहीं पाया खुद कभी
बस इसीलिए औरों के लिए फैसलों पर
जिन्दगी जिए जा रहा हूँ।
एक बुरा इंसान
मैं साबित अक्सर बुरा ही हुआ हूँ
एक बार नहीं कई बार हुआ हूँ
मिलता है जब भी कोई अनजाना अजनबी
कहता है बस यही ,
तुम एक अच्छे इंसान हो
और बदल जाते हैं शब्द उसके ,
महज चार ही दिनों में ,
सुनने को मिलता है मुझको ,
अच्छा इंसान समझते थे तुमको हम ,
पर निकले तुम भी बुरे।
और बात हैरत की ये ,
चीख चीखकर सालों से ,
दिला रहा हूँ यकीं सबको ,
मैं बुरा इंसान हूँ ,
हाँ मैं एक बुरा इंसान हूँ।
पर करता नहीं कोई यकीं ,
वजह है बस इतनी सी ,
फैला है भ्रम लोगों में
कि ,
कहते है बुरा खुद को ,
अक्सर अच्छे इंसान ही ,
बुरा इंसान नहीं कहता बुरा
खुद को कभी।
कैसे समझाएं अब सबको ,
अपवाद हूँ मैं ,
ऐसा एक बुरा इंसान ,
जो न केवल बुरा है ,
बल्कि स्वीकार भी करता है ,
खुद के बुरे होने को।
बस चल दिए
होंश संभाला जब से ,
सुना तुमने बस इतना ही ,
कि ,
चलना है।
और तुम…
न सपनो को समझा ,
न मंजिल को जाना ,
बस चल दिए।
आया अगर राह में दोराहा ,
पूछा किसी अजनबी से ,
और ,
बता दिया उसने अपने हिसाब से ,
रास्ता कोई एक।
और तुम…
न सपनों को समझा ,
न मंजिल को जाना ,
बस चल दिए।
कहाँ पहुँचे हो आज तुम ?
जानते हो ?
नहीं ,
कैसे जानोगे तुम ?
तुम तो एक राही हो ,
चलना तुम्हारा काम है।
इसीलिए ,
जो राह दिखी उसी पर ,
बस चल दिए।
पर ,
राही क्या सिर्फ राही होता है ?
क्या वो इंसान नहीं होता ?
या उसके सपने नहीं होते ?
तब तो सुख दुःख भी नहीं होता होगा ?
नहीं ,
तुम्हारे भी सपने थे ,
तुम्हारी भी मंजिल थी।
पर ,
रुके नहीं तुम एक पल भी ,
जिसने जो राह दिखाई ,
उसी पर ,
बस चल दिए।
बहुत दूर निकल आए हो घर से ,
घर तो लौट नहीं सकते।
और ,
जाना कहाँ है , ये भी नहीं जानते।
तो ,
क्या करोगे अब ?
पूछोगे किसी और से ,
एक नई राह का पता ?
न सपनों को समझोगे ,
न मंजिल को जानोगे ,
बस चल दोगे।
एक बार फिर
सालों पहले हुए थे तैयार रेंगने को।
क्यों ?
क्यों ना होते !
सब कोई होते है ,
उम्र के एक पड़ाव में।
उस दौर में ,
जबकि ,
असंभव सपनों को संभव करने की ,
हर मुमकिन कोशिश नाकाम हो चुकी होती है।
क्यों ?
क्योंकि ,
किशोरवय में निकल आये ' परों ' से उड़ान भरने को आतुर ,
कुछ ही दूर तक उड़ पाता है वो ,
और ,
होता है आभास उसे ,
उन बन्धनों का ,
जकड़ा है जिनसे वो सदा से ही।
सबसे बड़ा बन्धन होता है इनमें ,
' कुछ तो लोग कहेंगे '
और एक होता है ,
' असफल हो गए तो ? '
बन्धन , जो रोकते हैं इंसान को कुछ नया करने से।
बन्धन , जो रोकते हैं इंसान को कुछ अलग करने से।
करता है जब इंसान ,
दुःसाहस इन बन्धनों को तोड़ने का
और हो जाता है त्रुटिवश असफल अपने इनोवेशन में।
तब ,
प्रकट हो जाते है अपने साकार रूप में ये बन्धन ,
और लगते है कतरने ' पर ' उसके।
तब ,
करना पड़ता है समझौता उसे आम जिन्दगी से ,
और होना पड़ता है विवश रेंगने को।
हुए थे तैयार रेंगने को हम भी ,
रेंगते रहे सालों साल।
लेकिन अब ,
निकल आए हैं पर फिर से ,
हो रहे है आतुर उड़ान भरने को।
कितना उड़ पायेंगे ?
बन्धनों को कैसे तोड़ पायेंगे ?
और वो भी अब ?
उम्र के इस पड़ाव में !
रहने देते है इस बार ,
सवालों को सवाल ही
भरते हैं उड़ान फिर से।
हो गए असफल भी तो क्या ,
इतना ही तो होगा ,
कि कतर दिये जायेंगे ' पर ' फिर से !
रेंगने का विकल्प तो सुरक्षित है ही।
यह तुम ही हो
दो उल्लू
एक डाल पर बैठे दो उल्लू ,
एक गया मनाली, एक गया कुल्लू ।
उल्लूओं में छिड़ी जंग ,
दिखाया सबने अपना रंग ।
हो चाहे कोई कितना ही तंग,
डाल ना छोडेंगे
रहेंगे सब यहीं संग।
लौट आये दोनों उल्लू ,
गये थे जो मनाली और कुल्लू ।
बोले - ' रहेंगे हम भी यहीं,
ना जायेंगे ये डाल छोड़कर कहीं । '
बोला बुजुर्ग एक उल्लू -
" लौट आये क्यों तुम
छोड़कर मनाली और कुल्लू ? "
बोले दोनों - " नहीं रहना वहां,
पडती हो भीषण ठण्ड जहां। "
बिछा ना पाये अपना जाल,
ना हासिल कर पाये कोई डाल ।
लौट आये बस इसीलिये
दोनों उल्लू ,
छोड़कर स्वर्ग जैसा ,
मनाली और कुल्लू ।
- स्वरचित ( विजय कुमार बोहरा )
घूमना अच्छा लगता है मुझे
घूमना अच्छा लगता है मुझे,
बचपन से ही;
यहाँ-वहाँ,
इस नगर- उस नगर।
पर,
बचपन में तो जा नहीं पाता था,
हर कहीं अपनी मर्जी से।
लेकिन,
अब निकल जाता हूँ हर कहीं,
खुद अकेला ही,
कहीं भी,
किसी भी राह पर,
किसी भी डगर पर।
देखे हैं नगर कई,
जंगल और पहाड़ भी,
कई नदियां और झरने भी।
पर,
मिटी नहीं तलब घूमने की,
कहीं कुछ छूट गया हो जैसे,
कोई एक जगह है ऐसी,
जहाँ घूमने की इच्छा बचपन से है।
हाँ, याद है मुझे,
एक जगह के बारे में सुना था मैंने,
दादी की कहानियों में,
या शायद स्कूल की किताबों में।
ऐसी जगह है एक,
जहाँ रहते है सब लोग,
मिल-जुल कर,
बिना किसी भेदभाव
या ईर्ष्या-जलन के।
न उनमें कोई हिन्दू है,
न है मुसलमान,
न कोई सिख है उनमें,
न है कोई इसाई।
मज़हब उनका एक है,
मानवता जिसे कहते हैं।
एक- दूजे की उन्नति देख कर,
होते है खुश वे,
और,
जब देखते हैं पतन किसी का,
हो जाते है दुखी,
वे खुद भी।
ऐसी ही है एक जगह दुनिया में कहीं,
खोज रहा हूँ बचपन से उसे,
मिली नहीं अब तक,
पर खोज जारी है,
मिलेगी जरुर,
आज नहीं तो कल सही।
चीटफंड कम्पनी
नहीं है परवाह किसी को
जिन्दगी को अपने हिसाब से।
नहीं है परवाह किसी को
इंसानियत की,
न मानवता की,
न नैतिकता की।
हर कोई भाग रहा है,
भौतिक सुखों के पीछे,
नहीं है परवाह किसी को
अच्छाई की-बुराई की,
न किसी के जीने-मरने की,
न किसी के हंसने-रोने की।
जी रहे है जिन्दगी को सभी अपने हिसाब से।
खत्म होती जा रही है संसार से,
मानवीय भावनायें,
परदुःखकातरता,
और,
वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना।
हर कोई चाहता है बस,
अपने स्वार्थों की पूर्ति,
मौज-मस्ती करना,
हमेशा खुश रहना,
और,
हंसते-खिलखिलाते हुए जीवन बिताना।
चाहे चुकानी पडे कीमत इसकी,
दूसरों के दु:ख के रूप में,
दूसरों की खुशियाँ छीनकर,
दूसरों को तकलीफ पहुंचाकर।
नहीं है परवाह किसी एक को,
दूसरे की,
हर कोई जी रहा है जिन्दगी को,
बस अपने हिसाब से ।