किस्मतवाला

हँसता है,हंसाता है,
गम अपने वो,
सबसे छिपाता है। 

कहते हैं लोग,
खुश है वो,
और है,
किस्मतवाला भी। 

किये होंगे कर्म अच्छे,
 उस जनम में,
दे रहे हैं फल अच्छे जो,
इस जनम में। 

सुनता है वो,
दुखड़े उन मित्रों के,
है परेशान जो,
अपने ही बेटे-बहू से,
उनके परायेपन के बर्ताव से। 

मित्र आसूँ बहाते हैं,
वो सहानुभूति जताता है। 

और,

न जाने क्यों,
मित्रों के जाते ही,
फुट पड़ती है,
रुलाई उसकी भी। 
रो उठता है,
फूट -फूटकर,
वो खुद भी। 

बदलाव


बहुत कुछ बदल चुका है यहां,
लोग कुछ को कुछ समझने लगे हैं।

पहले जो संकेत मात्र से समझ जाते थे,
अब बार-बार कहने से भी नहीं समझते।

सोचता हूँ,

छोड़ दूँ सबको।

पर ईगो है कि,
भूलने नहीं देता कुछ भी।

हरदम बस एक ही बात दिमाग में घूमती है,
कि
 पा लूँ किसी तरह वो सब,

छूट चूका है जो,
पीछे,
बहुत पीछे।

पर,
संभव नहीं ऐसा करना,

इसीलिए,

रहने देता हूँ,

जो,
जैसा,जहां,
जिस हाल में हैं।

एक और इनोवेशन

कहा था मैंने,
करना इनोवेशन,
लेकर लाइफ को,
हर रोज नये-नये। 

जब मन हो,
जिसके साथ,
करते रहना,
प्रयोग नये-नये। 

किया तुमने ऐसा ही,
किये इनोवेशन,

सीखा कुछ नया,
और,
सिखाया औरों  को भी। 

पर,

भूल गये क्यों,
नहीं करने थे इनोवेशन,
गलत लोगो पर,
गलत आदतों साथ। 

क्या मिला,
गलत इनोवेशन करके,

हुए दुखी खुद भी,
और,
किया औरों को भी। 

मिले तुमको आंसू,
और दिये औरों को भी,
जाने-अनजाने ये ही आंसू। 

देख ली दुनिया तुमने,
नहीं भरा जी अब भी!

देखोगे दुनिया कितनी तुम?

हर तरफ है यहाँ,
जंगली भेड़िये,
चाहते हैं जो,
सिर्फ स्वार्थ साधना। 

नहीं है इन भेड़ियों में,
कोमल भावनाएं,
है इनमे तो बस,
वासना की गंध। 

नहीं है अच्छी ये दुनिया,
मत करो अब और इनोवेशन। 

जाओ अब,
अपनी ही पुरानी दुनिया में। 

 है जहां पवित्र भावनायें,
राह देखते हैं तुम्हारी,
वे शख्स,
जो रहे हैं हितैषी,
सदा ही तुम्हारे। 

लौट जाओ, 
अपनी ही पवित्र सपनो की दुनिया में,
और,
बंद कर दो सारे इनोवेशन। 




यह तुम ही हो


क्यों ले रही हो इम्तिहान,
मेरे सब्र का।
रह पाओगी दूर कब तक,
मुझसे तुम!
और,
रह लो शायद तुम तो।
पर,
भला रह पाऊंगा कैसे,
लम्बे समय तक,
दूर मैं तुमसे।
क्यों आ जाती हो,
जब तब निकलकर,
अतीत के पन्नो से,
सामने मेरे,
कभी किस रूप  रूप में,
तो कभी किस रूप में।
याद है आज भी,
आयी थी तुम,
सामने मेरे,
हंसती हुई,
फूलो सी महकती हुई!
फिर एक दिन,
खो गयी जाने कहाँ।
खोजा बहुत मैंने,
मिली भी।
पर,
बदल चुका था,
रूप तुम्हारा।
आत्मा वही थी,
पहचान लिया मैंने,
यह तुम ही थी,
यह तुम ही थी।
एक बार फिर,
कर दिया मैंने,
समर्पित तुमको,
जीवन अपना सारा।
और फिर,
हुआ जाने क्या,
कि,
खो गयी तुम फिर से।
निकल पड़ा,
एक बार फिर मैं,
तलाश में तुम्हारी।
और,
कितनी अजीब बात है!
एक बार फिर,
मिल गयी मुझको तुम।
पर,
बदल चुका था,
रूप तुम्हारा फिर से।
अब भी,
आत्मा वही थी,
और,
पहचान लिया तुमको मैंने,
एक बार फिर से,
यह तुम ही थी,
यह तुम ही थी।
बार- बार आती हो,
कभी हंसाती,
कभी रुलाती हो।
पर समझ नहीं पाता  मैं,
क्यों बार-बार मुझे,
छोड़कर चली जाती हो।
चल रहा है,
कई सालो से,
हमारे बीच यह खेल
कभी छिप जाती हो तुम,
और ढूंढता फिरता हूँ तुमको,
यहाँ से वहाँ।
कभी-कभी होता है ऐसा,
कि,
छिप जाता हूँ मैं भी,
और ढूंढती फिरती हो मुझको,
यहाँ से वहाँ।
क्यों होता है ऐसा,
कब तक बदलती रहोगी रूप अपने,
कब तक भागती रहोगी,
इस कदर,
अपने आप से।
जानता हूँ,
क्या सोचती हो तुम,
क्या चाहती हो तुम,
क्या महसूस करती हो तुम।
पर,
लगता है जाने क्यों ऐसा,
जैसे चल रहा हूँ,
गलत राह पर मैं।
और शायद,
लगता होगा तुमको भी,
की,
हो तुम स्वयं गलत राह पर।
लेकिन,
क्या सही है ये?
सोचो,
चिंतन करो।
इंसान गवाह है,
अपनी अच्छाई  का,
अपनी बुराई का,
अपनी निर्मलता का,
अपनी मलिनता का।
पूछो अपने ह्रदय से,
क्या कहता है यह?
क्या लगता है अब भी,
है गलत राह पर हम?
अगर है यथार्थ में ऐसा ही,
तब तो,
व्यर्थ है मेरा लेखन,
व्यर्थ है मेरी भावनायें,
और,
सम्भवतः व्यर्थ है हमारी मित्रता।
अगर कहता है तुम्हारा हृदय,
नहीं है गलत राह पर हम।
तब,
सार्थक है मेरा लेखन,
सार्थक है मेरी भावनायें,
और,
निःसंदेह सार्थक है हमारी मित्रता ।