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बुधवार, 31 जनवरी 2018

ईगो


अजीब सी बात है,
समझ  नहीं पाता मैं।

रह गया सब कुछ पीछे,
इतना पीछे,
कि,

चाहकर भी नहीं पा सकता वो सब,
 रह गया है जो,
अतीत के ऐसे अँधेरे कोने में,
जहां से न उसका आना हो सकता है,
न उसे वर्तमान में लाना।

सोच रहा हूँ बैठा कब से,

क्यों--कब-कैसे,
और किसलिये,
खो गया सब कुछ,
एक पल में,
पाने में जिसे लग गए थे,
कई साल।

चाहता तो हूँ कि,
संभल जाये किसी तरह,
रिश्ते सारे।

पर लगता नहीं संभव,
ऐसा हो पाना।

जानता हूँ कि,
कर सकता हूँ,
ठीक सब।

पर,

ईगो है कि,
रोक लेता है मुझे,
आगे बढ़ने से। 

मंगलवार, 30 जनवरी 2018

अंधेरा

शहर में हर तरफ एक खामोशी थी,
देखा मैंने जिधर भी,
छाया था सिर्फ अंधेरा।
नहीं था ऐसा कोई,
मिटा पाता जो,
उस अंधेरे को।
खोजा मैंने बहुत,
पर मिला नहीं कोई।
था ही नहीं कोई उस शहर में,
जो मिलता मुझे वहां।
थक गया जब मैं खोजते खोजते,
आयी एक आवाज पीछे से-
''लौट जाओ मुसाफिर,
ये शहर नहीं है दया के काबिल।
यहां के वासियों ने ही किया था अंधेरा,
खुद अपने शहर में।
और खो गए वे ही,


उसी अंधेरे में।''

सोमवार, 29 जनवरी 2018

किसी एक की तलाश में

अजनबी सी राहें हैं,
चलते रहना जिंदगी हैं|
चले जा रहे हैं बिना रुके,
न राह का पता है,
न मंजिल का|
बस इसी उम्मीद में
कि शायद आज नहीं तो कल सही,
जान ही जायेंगे हकीकत अपनी जिंदगी की|
 कैसी राहें है ये,
कैसी दुनिया है ये,
नहीं दिखती रोशनी कहीं,
हर तरफ है गुमनामी के अँधेरे|
 इन्ही अँधेरों में कहीं,
खोकर रह गयी है जिंदगी मेरी भी|
बस जी रहे हैं किसी एक की तलाश में|

रविवार, 28 जनवरी 2018

प्रकाश की चाह

हर तरफ छाया है अंधकार,
व्याकुल है हम,
परेशान है हम,
दिखती नही रोशनी कहीं।
करते हैं प्रयास,
छटपटाते है हाथ-पैर,
पर है हालत जस की तस।
अंधकार जाता नहीं,
प्रकाश आता नहीं,
अंधकार होता अगर बाहर ही,
तो कर देते दूर इसे किसी तरह।
पर है यह तो हमारे ही भीतर,
न इसे दूर कर पा रहे हैं,
न मिटा पा रहे हैं,
साधन नहीं है इसे दूर करने का,
पास हमारे,
तब हो कैसे सिद्धि लक्ष्य की,
जानना होगा, समझना होगा।

ज़रा नियामत और बरसा दे

अकेलापन! तन्हाई!
ऐ खुदा!
कैसी नियामत ये तूने बरसायी। 
घेरे हैं हर तरफ से,
अजनबी चेहरे। 
देते हैं जो हर वक़्त, 
मुझ पे पहरे। 
लगते कभी गैर हैं,
कभी अपने। 
जैसे हो कोई,
भूले-बिसरे सपने। 
इन्हीं में कोई एक चेहरा,
नहीं लगता गैर जरा भी। 
लगता है अपना,
बिल्कुल अपना। 
हो जैसे,
बचपन का देखा कोई सपना।
सामने आ गया अचानक ऐसे। 
खुदा की नियामत,
नूर बनकर बरसी हो जैसे। 
चेहरा अलग है,
पर रूह में उसकी,
है अक्स मेरा ही। 
वो मुझमे है,
या मैं उसमे।  
 या है दोनों एक ही,
पहचान करा दे,
ऐ खुदा!
जरा नियामत और बरसा दे। 

शनिवार, 27 जनवरी 2018

एक इंसान

देखता हूँ हमेशा से मैं,
अपने सामने के उस मकान को,
रहता है जिसमें एक अकेला वृद्ध इंसान।
सोचता हूँ,
क्यों है वो अकेला ,
क्यों नहीं रहते,
उसके घर में और कोई?
निकलता है वो जब भी घर से बाहर,
रहती है उसके चेहरे पर,
एक अजीब सी उदासी।
पर रहने नहीं देता,
वो उस उदासी को,
अधिक समय तक,
चेहरे पर अपने।
जाता है वो सीधा उस पार्क में,
खेलते हैं जहां बच्चे,
बेफिक्र होकर।
और बन जाता है वो भी,
उनके साथ का,
एक छोटा सा बच्चा।

शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

जीवन की उलझन

आज फिर दिन निकला,
आज फिर नयी सुबह आयी।
सोचते हैं हर रोज,
 कि,
 आज तो करेंगे कुछ ऐसा,
 बन जाए जिससे,
 दिन हमारा सार्थक,
 और,
 एक एक दिन से मिलकर बन जाए,
जीवन हमारा सार्थक।
पर,
हाय नियति!
कैसे संभव है ऐसा हो पाना।
जब रात-दिन,
सुबह-शाम,
सोते-जागते,
पल-प्रतिपल,
हर क्षण;
 तेरी ही यादें,
 तेरी ही बातें,
 तेरे ही खयाल,
छाये रहते हैं,
 दिल और दिमाग में।
चाहा था हमने,
 जीवन को संवारना,
 दिल को संभालना।
पर,
हुआ न जाने क्या,
 कि,
न जीवन संवरा,
न दिल संभला।
और,
 आज हालात ये हैं कि,
 जीवन रह गया है उलझकर,
दिल के रिश्तों में।

जीवन और मंजिल

जीवन एक पहेली है,
 समझो इसे।
जीवन एक उलझन है,
 जानो इसे।
हर वक्त सोचते हैं,
 क्यों चलना शुरू किया,
 कब तक चलते रहेंगे यूं ही।
न राह का पता है,
 न मंजिल का।
घर से निकले थे जब,
 जानते थे कहाँ जाना है,
 मंजिल भी निगाहों में थी,
 राह का भी पता था।
पर चार कदम चलते ही,
जाने क्या हो गया,
कि,
विस्मृत हो गयी मंजिल,
 भूल गये रास्ता।
आज भटकन है,
 भ्रम है,
 रास्ते कई है,
 मंजिल नदारद हैं।

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

नक़ल प्रथा

'फेल नहीं होता बेटा मेरा,
करवा पाता अगर परीक्षा में,
नक़ल मैं उसको। 
पर,
हो न पाया ऐसा,
वर्ना ताकत थी किसमें इतनी,
कि,
कर पाता फेल,
बेटे को मेरे।'

कहा एक शिक्षक ने जब,
सुनाते हुए व्यथा अपनी,
         देखा मैंने उसकी ओर। 

मानो,
न हो वह कोई शिक्षक,
हो वह तो एक नेता ऐसा,
है जो भ्रष्ट,
आपादमस्तक। 

रुख्सत हुआ वहाँ से जब,
सोचता रहा दिनभर,
बस यही कि,
कैसा है आज का शिक्षक,
चाहिए रोकना जिसे,
गोरखधंधा नक़ल का,
दे रहा है वही शिक्षक,
बढ़ावा आज उसे। 

परखा,जाना,समझा,
जब आस-पास के माहौल को,
ज्ञात हुआ मुझे,
कि,
जकड चुके है हम,
'नक़ल प्रथा' की ऐसी बेड़ियों में,
नहीं हैं सहज,
मुक्त होना जिनसे। 

सही है कि,
उलझे हैं हम,
एक बड़े चक्रव्यूह में। 

पर,
रह नहीं सकते हम,
यूँ ही रखे,
हाथों पर हाथ। 
रखना होगा धैर्य हमे,
है नहीं उपाय आज,
पास हमारे। 

पर मिलेगा,
समाधान कोई तो,
इस समस्या का,
आज नहीं तो,
कल सही।  

बुधवार, 17 जनवरी 2018

संभल जा ओ राही

रुक गया वो फिर से चलते-चलते,
थम गया वो फिर से चलते-चलते, 
आ गयी है कुछ बाधायें राह में। 

मिल गयी है, 
कुछ अनजानी सी राहें,
आकर उसकी राहों में। 
भटक गया है वो,
फिर से अपनी मंज़िल से। 

रखना होगा याद उसे,
सदा ही,
अपनी मंज़िल को,
अपनी राहों को। 

क्यों भटक जाता है वो,
बार-बार। 
समझना होगा उसे,
जानना होगा उसे,
अपनी  मंज़िल को,
अपनी राहों को। 




गुरुवार, 11 जनवरी 2018

क्यों

 क्यों थक गए तुम,
चलते चलते।
क्यों रुक गए तुम,
मंज़िल तक पहुंचने से पहले।

हुए नहीं अभी,
कांटो से भी रूबरू
और,
फूलो को  देखकर ही बहकने लगे।

जाना है अभी तो,
बहुत आगे,
चलना है अभी तो,
मीलो दूर,
आया नहीं अभी तो,
पहला पड़ाव भी,
और,
अभी से तुम थकने लगे।

मिलेंगे राही  और भी,
आएँगी बहारे और भी,
पर,
रुकना नहीं है तुम्हे कहीं,
चलना है अभी तो,
मीलो दूर।

मंज़िल तक पहुंचना है,
आज नहीं तो कल सही। 

रविवार, 7 जनवरी 2018

रास्ता और मंजिल

रास्ता लम्बा था,
मंज़िल दूर थी ,
कदम जवाब  चुके थे  
पर चलना था मुझे।

नदियों ने कहा-
'जल पीकर थकान  दूर कर ले'
पर मैं  रुका नहीं ।
वृक्षों ने कहा-
'हमारी छाया में आराम कर ले'
पर मैं थमा नहीं ।

बाधायें बहुत थी,
कष्ट बहुत थे।
पर ललक  थी ,
मंज़िल तक पहुंचने की।
उत्सुकता थी,
 रास्ता तय करने की,
पर था धैर्य भी।

मैं चला और चलता गया, 
अपनी ही गति से।
हताश  भी हुआ,
निराश भी हुआ,
पर हार नहीं मानी।
धैर्य का दामन नहीं छोड़ा,
उम्मीद अभी बाकी थी।
मैं चलता गया,
अपनी ही धीमी गति से ।

और आज,
कट गया रास्ता,
मिल गयी मंज़िल। 

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

अपनी ही धुन में-2


रह गया सब कुछ पीछे,
और चले जा रहे हैं हम आगे।
चाहते थे हम तो निकलना आगे,
और निकल भी गये।

रहने दो सबको पीछे,
कहते थे जो पराजित हमें,
बन्द हो गये उनके मुँह,
और चाहते थे जो हमारी हार देखना,
आज खुद हार का मुंह देख रहे हैं।

और हम,
हम तो बस चले जा रहे हैं,
अपनी ही धुन में।

चलते रहो राही!


चलते रहो राही हो तुम,
रुकने का तुम्हे अधिकार नहीं।
हंसते मुसकराते बढे चलो मंजिल की ओर,
दुखी होने, रोने में कोई सार नहीं।

सोचते हो, रुक जाऊं;
थोडा आराम कर लूँ,
पर रुकना राही का काम नहीं।
चलते रहो राही हो तुम,
रुकने का तुम्हे अधिकार नहीं ।

माना मंजिल अभी दूर है,
असीमित थकान और आंखों में सरुर है,
पर हुई अभी शाम नहीं।
चलते रहो राही हो तुम,
रुकने का तुम्हे अधिकार नहीं ।

ओठों पर प्यास है, पेट में भूख है
पलभर भी तुम्हें अवकाश नहीं,
बढे चलो राही,
करना है अभी तुम्हें आराम नहीं।
चलते रहो राही हो तुम,
रुकने का तुम्हे अधिकार नहीं ।

सोमवार, 1 जनवरी 2018

अपनी ही धुन में


चला जा रहा है वो,
अपनी ही धुन में।
न लोगों की खबर,
 न दुनिया की परवाह।
जाना है उसे आगे,
 बहुत आगे।

कहते हैं लोग- 'यह तो बडा निर्मोही है,
 किसी से कहता नहीं,
 किसी की सुनता नहीं,
 दुनिया से कटकर रहता है।'

पर नहीं है वक्त उसके पास,
 सुनने को ये सब बातें।
करना है उसे बहुत कुछ,
 पाना है उसे सब कुछ,
 जो मिलेगा,
 सिर्फ और सिर्फ सच्ची लगन से,
 लक्ष्य तक पहुंचने की तीव्र इच्छा से।

सब कुछ सुनता है,
 सब कुछ सहता है,
 पर, उलझता नहीं किसी से।
जानता है कि,
 उलझा लोगों से, तो,
 रह जायेगा हमेशा उलझा ही।
इसीलिए चला जा रहा है वो,
 अपनी ही धुन में।