'फेल नहीं होता बेटा मेरा,
करवा पाता अगर परीक्षा में,
नक़ल मैं उसको।
पर,
हो न पाया ऐसा,
वर्ना ताकत थी किसमें इतनी,
कि,
कर पाता फेल,
बेटे को मेरे।'
कहा एक शिक्षक ने जब,
सुनाते हुए व्यथा अपनी,
देखा मैंने उसकी ओर।
मानो,
न हो वह कोई शिक्षक,
हो वह तो एक नेता ऐसा,
है जो भ्रष्ट,
आपादमस्तक।
रुख्सत हुआ वहाँ से जब,
सोचता रहा दिनभर,
बस यही कि,
कैसा है आज का शिक्षक,
चाहिए रोकना जिसे,
गोरखधंधा नक़ल का,
दे रहा है वही शिक्षक,
बढ़ावा आज उसे।
परखा,जाना,समझा,
जब आस-पास के माहौल को,
ज्ञात हुआ मुझे,
कि,
जकड चुके है हम,
'नक़ल प्रथा' की ऐसी बेड़ियों में,
नहीं हैं सहज,
मुक्त होना जिनसे।
सही है कि,
उलझे हैं हम,
एक बड़े चक्रव्यूह में।
पर,
रह नहीं सकते हम,
यूँ ही रखे,
हाथों पर हाथ।
रखना होगा धैर्य हमे,
है नहीं उपाय आज,
पास हमारे।
पर मिलेगा,
समाधान कोई तो,
इस समस्या का,
आज नहीं तो,
कल सही।
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