शनिवार, 24 अगस्त 2024

हिप्नोटाइज - थ्रिलर उपन्यास ( भाग - 4 )

  


अमर उन दिनों ' जयपुर इंजीनियरिंग काॅलेज ' में  सैकेंड ईयर का स्टूडेंट था।

तब न तो वह सिगरेट -  शराब पीता था और न ही जुआ खेलना उसका शौक था।

घर- परिवार से सम्पन्न होने के बावजूद वह बहुत मिलनसार और उदार व्यक्तित्व का मालिक था।

हर किसी की मदद करना और विनम्रता बनाये रखना उसकी आदतों में शुमार था।

उसके लिये उसके दोस्त ही सब कुछ थे। वह अपने दोस्तोंके लिये कुछ भी कर सकता था।

उस दिन अमर क्लास में अकेला बैठा था।

वह किसी का इंतज़ार कर रहा था।

किसका ?

उसका, जो उसके दोस्तों में खास से भी खास थी।

भारती!

भारती उसकी सबसे अच्छी दोस्त थी।

अचानक से अमर ने किसी के कदमों की आहट सुनी।

" यह जरुर भारती ही होगी  " - सोचते हुए अमर ने अपनी निगाहें क्लासरूम के दरवाजे पर स्थिर कर दी।

" अमर! कैसे हो  ? " - कहते हुए वह भीतर आयी।

" ये तो ईशा है! " - अमर को थोड़ी निराशा हुई।

" ठीक हूँ। " - अमर बोला।

" क्या तुम्हारे पास फीजिक्स के सारे नोट्स है ? " - ईशा ने पूछा।

" हाँ "

" क्या तुम मुझे दे सकते हो ? " - ईशा मासूमियत से बोली  - " मैं दो- तीन दिन में लौटा दूंगी। "

" हाँ, जरूर। " - कहते हुए अमर ने अपने नोट्स ईशा को दे दिये।

" थैंक्स " - कहते हुए ईशा वहां से चली गयी।

पीछे रह गया अमर, भारती के इंतज़ार में।

कुछ देर बाद फिर से किसी के कदमों की आवाज़ सुनायी दी।

" इस बार जरुर भारती होगी। " - सोचते हुए अमर ने बेसब्री से दरवाजे की ओर देखा।

अमर एक बार फिर गलत निकला।

इस बार सनी था।

" सनी, तुम हो ? " - अमर के मुंह से निकला।

" हाँ, क्यों! तुम्हें किसी और का इंतज़ार था? "

" नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। " - अमर थोड़ा नर्वस हो गया।

" कैसा है! " - सनी हल्के से मुसकराते हुए बोला - " ये तो पूरा काॅलेज जानता है। "


 


" और बताओ, कैसे हो? " - अमर ने बात टालने के लिये कहा।

" मैं तो ठीक हूँ। पर, तुमसे थोड़ी हेल्प चाहिए थी। "

" तो बोल ना, तू दोस्त है मेरा। तेरे लिये तो जान भी हाजिर है। "

" वो क्या है कि आज साक्षी का जन्मदिन है। " - सकुचाते हुए सनी ने कहा - " तो मैं उसे एक अच्छे से होटल में लंच के लिये ले जाने की सोच रहा था। क्या तुम मुझे अपनी कार की चाबी दे सकते हो? हम जल्दी ही वापस आ जायेंगे। "

" बस इतनी सी बात! " - अमर मुसकराते हुए बोला - " यह लो। "

" थैंक्स! " - चाबी लेकर सनी चला गया।

कुछ ही देर बाद फिर से किसी के कदमों की आहट आयी। पर, इस बार अमर ने सिर उठाकर नहीं देखा।

उसे पता था कि हर बार की तरह इस बार भी कोई और ही होगा।

वह अपना सिर नीचे की ओर किये लापरवाही से बैठा रहा, बस यूँ ही।

" हैलो, अमर! कैसे हो ? " - आगन्तुक की आवाज़ अमर पहचानता था।

ये वही थी।

हाँ, ये उसी की आवाज़ थी।

हर्ष और आश्चर्य के मिश्रित भाव चेहरे पर लिये अमर ने आगन्तुक को देखा।

यह भारती ही थी।

" टेबल पर क्या देख रहे थे ? " - भीतर दाखिल होते ही हरदम खुशी से प्रफुल्लित रहने वाली भारती ने पूछा - " टेबल पर कोई शायरी लिखी है क्या ? "

" अरे, भारती! काफी टाइम लगा दिया तुमने तो आने में । " - अमर खडे होते हुए बोला।


 


" साॅरी। " - कहते हुए भारती ने पूछा - " तो चलें ? "

" नहीं भारती! " - अमर बोला - " हमें कुछ देर रुकना होगा। "

" क्यों भला ? "

" मेरी कार सनी ले गया है और उसे आने में 20 - 25 मिनट और तो लगेंगे ही। "

" सुधर जाओ अमर! " - भारती बोली - " मैं पहले भी तुम्हें आगाह कर चुकी हूँ। पहले अपनी, फिर औरों की सोचा करो। "

" भारती क्या बोले जा रही हो ? "

" जब तुम्हें पता था कि हमें पिक्चर देखने जाना है, तो  तुमने कार सनी को क्यों दी ? " - भारती नाराजगी भरे स्वर में बोली।

" भारती! दोस्तों के लिये इतना तो करना ही पडता है। "

" इट्स ओके। "





 

कुछ समय बाद सनी आ गया।

अमर  - भारती पिक्चर देखने राजमंदिर गये।

पिक्चर देखने के बाद अमर ने भारती को उसके घर ड्राॅप किया और फिर वह अपने घर की ओर चल पडा।

शाम हो चुकी थी।

हल्की - हल्की बारिश आने लगी थी।

अमर ने पुराने गीतों को सुनने के लिये टेप आॅन कर दिया।

" दोस्त, दोस्त ना रहा।

प्यार, प्यार ना रहा। " - पहला ही गीत सुनकर अमर व्यंग्य से मुसकरा उठा - " ऐसा भी कभी हो सकता है ? दोस्त कभी बदल सकते है ? "

सोचते  - सोचते अमर के मन में आया कि क्यों ना दोस्तों के साथ एक मजाक किया जाये।

बस यूँ ही, थोड़ा मजा, थोड़ा मनोरंजन।

" इससे ये भी साबित हो जायेगा कि मेरे दोस्त कितने सच्चे है और मेरे लिये अपनी जान तक दे सकते है, जैसे कि मैं दे सकता हूँ। " - अमर के मन में एक अजीब सा मजाक सूझा।

अमर ने अगले ही दिन से अपनी योजना पर अमल करने का विचार बनाया।

□  □  □



भारती की क्लास जैसे ही खत्म हुई, उसने बाहर अमर को देखा।

" अमर! "

" भारती! " - अमर मुसकराते हुए बोला - " कैसी हो ? "

" अच्छी हूँ। तुम आज क्लास के बाहर मेरा इंतज़ार कर रहे थे। कुछ खास है आज ? "

" नहीं। ऐसा कुछ नहीं है। बस एक छोटा सा काम था तुमसे। "

" अच्छा! " - भारती बोली - " मुझसे कुछ काम था तुमको ? "

" हाँ। "

" बोलो ना क्या काम है ? " - भारती सीधे अमर की आंखों में देखते हुए बोली  - " तुम्हारे लिये तो जान भी हाजिर है अमर! "

" मुझे तो बस तुम्हारे नोट्स चाहिए थे कैमिस्ट्री के। " - अमर ने बताया।

" केमिस्ट्री के नोट्स ? " - भारती थोडी नर्वस हुई।

" क्या हुआ ? "

" अमर! कुछ ही दिनों में परीक्षा शुरू होने वाली है और तुम तो जानते ही हो कि मैं केमिस्ट्री में बहुत कमजोर हूँ। "

" तो ? "

" साॅरी अमर! मैं तुम्हें अपने नोट्स नहीं दे सकती। " - भारती ने बहुत ही बेरुखी से जवाब दिया।

" पर, भारती! " - अमर ने कहा - " मैं कल लौटा दूंगा। सिर्फ एक दिन के लिये। "

" अमर! तुमने कुछ और मांगा होता तो मैं कभी मना नहीं करती, पर नोट्स नहीं दे सकती। "

अमर को गहरा धक्का सा लगा।

फिर भी अपनी भावनायें छिपाते हुए वह बोला  - " इट्स ओके भारती! "

" अमर! " - भारती ने बात टालने के लिये कहा  - " कैंटिन चलें, काॅफी पीने ? "

अमर का मन तो नहीं था, लेकिन वो एकाएक इनकार करता तो भारती को बुरा लग सकता था।

बस इसीलिये उसने चेहरे पर हल्की सी बनावटी मुसकान लाते हुए कहा  - " हाँ, जरूर। "

काॅफी पीते समय भी अमर अपने ही विचारों में खोया था।

" परीक्षा नजदीक है और भारती की केमिस्ट्री कमजोर है, इसलिए उसने नोट्स देने से मना किया। नहीं तो भारती कभी किसी चीज के लिये मना नहीं करती। " - अमर खुद को तसल्ली दे रहा था।

लेकिन चाहे जो हो, एक परीक्षा भारती को देनी थी जिसका परिणाम भविष्य को तय करना था और एक परीक्षा अमर ले चुका था जिसमें भारती न केवल फेल हुई थी, बल्कि बहुत खराब प्रदर्शन के साथ बुरी तरह से फेल हुई थी।

□  □  □

" सचिन! क्या तुम मेरी हेल्प कर सकते हो ? " - अमर और सचिन काॅलेज में लंच टाइम में बस यूँ ही घूम रहे थे, तब अमर ने पूछा।

" हाँ अमर! बोलो ना। तुम्हारे लिये तो जान भी हाजिर है। "

अमर का मन खुश हो गया सचिन के जोशीले शब्द सुनकर।

" मुझे तुम्हारा 'बेट' चाहिए। " - अमर के मुंह से बेट शब्द  सुनते ही सचिन बुरी तरह से चौंक उठा।

" अमर! "

" क्या हुआ सचिन ? "

" तुम जानते हो ना, मेरे पास सिर्फ एक ही बेट है। "

" तो ? "

" और वो मेरा लकी बेट है। "

" जानता हूँ । " - अमर बोला  - " तभी तो मुझे चाहिए, ताकि उससे खेलकर मैं मैच जीत सकूँ। "

" जब जानते हो। " - सचिन एक - एक शब्द पर जोर देते हुए बोला  - " तो यह भी जान लो कि मैं वह बेट तुम्हें नहीं दे सकता। "

" एक दिन के लिये भी नहीं ? "

" नहीं अमर! मुझे माफ कर देना। " - कहते हुए सचिन जाने लगा।

" सचिन! " - अमर ने पीछे से आवाज़ देते हुए कहा  - " तुम्हें मैं उस बेट की मंहमांगी कीमत दूंगा, बस एक दिन के लिये मुझे वह बेट दे दो। "


 


सचिन ने पहले घूमकर देखा, फिर कुछ कदम पीछे लौटकर आया और बोला  - " हर चीज़ को तुम पैसों से नहीं खरीद सकते अमर! वह बेट मेरे पापा ने मुझे मेरे 18वें बर्थड़े पर दिया था। वह सिर्फ मेरा लकी बेट ही नहीं, मेरे लिये एक अनमोल तोहफा भी है। मगर, तोहफे की कीमत तुम क्या समझोगे; तुम्हारे लिये तो पैसा ही सबकुछ है। "

फिर सचिन नहीं रुका।

वह चला गया।

और पीछे छोड़ गया मुट्ठियाँ भींचते हुए, आंखों से निकलने को बेताब आंसुओं को रोकने की भरपूर चेष्टा करते हुए अमर को।

□  □  □


                                                                  - क्रमश :


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