अति आत्मविश्वास

अति आत्मविश्वास !

टूटा है

हमेशा टूटा है।

अति आत्मविश्वास !

हारा है

हमेशा हारा है।

नहीं होता बर्दाश्त हमसे

इसका टूटना

इसका हारना।

स्वीकार नहीं कर पाते हम

उस सच्चाई को

दिखती है जो हमें ,

ठीक अपने सामने

होती है प्रत्यक्ष जो

हाथ पर रखे आँवले की तरह !

और ,

यही अस्वीकृति !

यही बर्दाश्त के बाहर की बात !

हो जाती है परिणत

घमंड में।

टूट जाते हैं खुद

तोड़ देते हैं औरों को भी।

पर टूटने नहीं देते

इस घमंड को ,

इस अति आत्मविश्वास को !

फिर हो जाये चाहे तबाह जिंदगियां ,

औरों की भी ,

खुद की भी !

पर ,

नहीं टूटने देते ,

इस अति आत्मविश्वास को ,

नहीं टूटने देते !

हिप्नोटाइज - थ्रिलर उपन्यास ( भाग - 1 )


" दिव्या आपकी हेल्प कर सकती है।"

" क्या ? कौन ?"
" दिव्या ...दिव्या शर्मा। "

" रवि! तुम मेरे बेटे के बहुत अच्छे दोस्त होकर भी उसकी मदद नहीं कर पा रहे हो, फिर कोई लडकी..."

" वह कोई आम लडकी नहीं है, वह बहुत ही सुलझे दिमाग वाली समझदार लडकी है। लोग समझते है कि केवल लडके ही किसी काम में लडकियों से अधिक एक्सपर्ट होते हैं, पर दिव्या हर काम को अच्छी तरह से कर सकती है। "

मिस्टर पंकज जडेजा बोले - " रवि! चाहे जैसे भी हो, एक बार मेरा बेटा सुधर गया, तो... "

" अंकल! आप टेंशन मत लीजिये। अगर दिव्या ने आपका काम कर दिया तो ठीक है, लेकिन वो नहीं कर पायी तो दुनिया का कोई इंसान आपकी मदद नहीं कर सकेगा।"

" पर, दिव्या है कौन ?...रहती कहाँ है ? "

" दिव्या मेरे ही काॅलेज में पढती है। मैं जल्द ही उसे आपसे मिलवाने लाऊंगा। "
जयपुर का एक पार्क। इस पार्क में बहुत-से पेड़  - पौधे थे। फव्वारे भी चल रहे थे। यहाँ कुछ बच्चे भी खेल रहे थे।
एक लडका, नीम के पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। वह दूसरे लड़को को खेलते देखकर खुश हो रहा था। वह खेल नहीं सकता था, क्योंकि कोई भी उसे अपने साथ खिलाना पसन्द नहीं करता था।
पहले वह बहुत दुःखी रहता था कि कोई उसे अपने साथ खिलाना नहीं चाहता, पर धीरे-धीरे उसने अकेले रहने की आदत डाल ली थी। अब तो वह दूसरों को देख - देख कर ही खुश रहता था।
उसका नाम विकास था। विकास रोज उस पार्क में आकर घंटों घूमा करता था। वह उन अमीर परिवार के लड़को को देखता था, जो सारी सुविधाएं मिलने पर भी जिद करते थे।
विकास कुछ बडी उम्र के लडके  - लडकियों को देखता था, जो उस पार्क में आकर घंटों बातें किया करते थे। वह कभी नहीं जान पाया कि वे क्या बातें करते है ?
विकास कुछ ऐसे लडको को भी देखता था, जो बेवजह किसी को भी मारने लगते थे , वे सिगरेट - शराब पीते और कभी-कभी विकास को भी पीटने लगते।
यह पार्क ही विकास की दुनिया थी। पार्क से बाहर, वह खुद को असुरक्षित महसूस करता था।
" अरे वाह ! कितनी खूबसूरत है वो ! " - उसे देखते ही विकास का मन खुशी से प्रफुल्लित हो उठा।
वह दूध- सी सफेद कुतिया थी। उसके साथ एक लडकी भी थी। उस लडकी की तरफ विकास का ध्यान नहीं गया। कुतिया के गले में पट्टा नहीं था, इसीलिये विकास को लगा कि वह एक आवारा कुतिया है।
विकास ने उठकर कुतिया की ओर कदम बढाये। कुतिया के पास पहुंचकर, उसने कुतिया को अपने दोनों हाथों से उठा लिया।
" बाऊ...वाऊ..."  - कुतिया भौंकने लगी।
" चिंता मत करो प्यारी कुतिया! " - विकास ने कहा  - " मैं तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। मैं तो तुम्हारे साथ खेलना चाहता हूँ। तुम्हारा नाम क्या है ? "
" जीनी ! "
" अरे वाह ! तुम तो बोलती भी हो! मैंने आज से पहले कभी बोलने वाली कुतिया नहीं देखी। " - विकास खुशी से चहकने लगा।



" क्या ?....मेरे बोलने पर तुम्हें अजीब लग रहा है ? और... और...तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई..." - अब विकास ने उस लडकी को देखा, जो कुतिया के साथ उस पार्क में आयी थी।
वह 21 वर्ष की एक खूबसूरत लडकी थी।
" साॅरी! " - विकास बोला -"  मैं तो बस..."
" कोई बात नहीं " - लडकी ने मुसकराते हुए कहा।
" हैलो! मेरा नाम विकास है और मैं 12 साल का हूँ। " - अपना परिचय देते हुए विकास ने पूछा  - " तुम्हारा नाम क्या है ? "
" दिव्या! " - लडकी ने कहा - " तुम्हें जीनी पसंद है ? "
" बहुत...यह बहुत अच्छी है। "
" अच्छा! तुम्हारा नाम क्या है ? "
" विकास।"
वाह! यह तो बहुत अच्छा नाम है। "
" धन्यवाद। " - कहते हुए विकास ने पूछा - " क्या मैं जीनी के साथ कुछ देर खेल सकता हूँ ? "
" जरुर! " - दिव्या बोली  - " इसे भी नया दोस्त पाकर खुशी होगी। "
विकास जीनी के साथ खेलने लगा और दिव्या पार्क में टहलने लगी।
जीनी को देखकर दूसरे बच्चे भी उसके पास आने लगे। पर जब उन्होंने जीनी के साथ विकास को देखा, तो वे दूर हट गये।
" दिव्या! तुम विकास को जानती हो ? " - एक लडके ने पूछा।
" हाँ। "
" कौन है विकास ? "
" वो जो जीनी के साथ खेल रहा है। "
" जीनी कौन ? "
" वह कुतिया जो विकास के साथ है। "
" तो उसका नाम जीनी है ! "
" हाँ। अच्छा नाम है ना ? "
" अच्छा था, पर अब नहीं रहा। "
" क्या मतलब ? "
" अब उसका नाम गन्दा हो गया है, क्योंकि उसने विकास के साथ दोस्ती कर ली है। "
" क्या ? " - दिव्या चकित थी  - " तुम ऐसा क्यों कह रहे हो ? "
" लगता है तुम विकास को जानती नहीं हो। विकास गन्दा लडका है और कोई उससे बोलना भी पसंद नहीं करता। "
" क्यों ? "
" यह तुम विकास से ही पूछो। "
दिव्या विकास के पास गयी और उस लडके के साथ हुई बात के बारे में उसने विकास को बताया।
" मुझे माफ कर दो दिव्या! " - विकास बोला  - " मेरे कारण..."
" तुम माफी क्यों मांग रहे हो ? और वो लडका क्यों कह रहा था कि तुम गन्दे लडके हो। "
" दिव्या! सच तो यह है कि मेरे साफ - सुथरे कपडे देखकर कोई भी अजनबी धोखा खा जाता है। मैं एक अनाथ हूँ। मेरी मां ने मुझे जन्म देते ही कचरे के डिब्बे में डाल दिया था। एक हरिजन महिला ने मुझे अपने पास रखा। 11 साल का होने पर उसने मुझे अपने साथ काम करने के लिये कहा, पर मैंने नालियाँ, गटर और सडकें साफ करने से मना कर दिया। उसने मुझे छोड़ दिया और पिछले एक साल से मैं अकेला हूँ। "
12 साल के छोटे से बच्चे के मुंह से इतनी बडी बात सुनकर दिव्या चकित रह गयी। उसने पूछा  - " तुम्हें कैसे मालूम चला कि तुम अनाथ हो और तुम्हारी माँ ने तुम्हें कचरे के डिब्बे में डाला ? "
विकास ने बताया  - " हरिजन महिला से जब मैंने काम नहीं करने की बात कही, तब उसने बताया। "
" तो अब तुम्हें भोजन कौन देता है ? तुम रहते कहाँ हो ? और सबको तुम्हारे बारे में कैसे पता ? "
" मैं इसी पार्क के पास वाली बस्ती में रहता हूँ। जब से मैंने हरिजन महिला को बताया कि मैं गटर साफ करने का काम नहीं कर सकता, तभी से वो मुझसे नफरत करने लगी है।इसी कारण वह जहां भी जाती है, वहाँ के लोगों को मेरे बारे में सब कुछ बता देती है। "
" फिर, तुम्हें ये कपडे और भोजन कौन देता है ? "
" मेरा एक दोस्त है - रहीम। उसके पिताजी मेरा बहुत ध्यान रखते है। वे ही मुझे अच्छे कपडे और खाना देते हैं । " - विकास बता रहा था  - " मैं जानता हूँ कि अमीर हरिजन से ही सब दोस्ती करते है, गरीब हरिजन से नहीं। इसीलिये मैं जल्द ही अमीर बनकर सबसे दोस्ती करना चाहता हूँ। "
दिव्या बोली  - " तुम जरुर एक दिन बहुत अमीर बन जाओगे। पर मैं और जीनी हमेशा तुम्हारे दोस्त रहेंगे। तुम हर रोज जीनी और मेरे साथ खेला करो। "
विकास बहुत खुश हुआ।
पहली बार, एक ऐसी लडकी उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढा रही थी, जो हरिजन नहीं थी, बल्कि ब्राह्मण थी।
                                                        - क्रमश :

चलो आज फिर कुछ करते हैं

चलो आज फिर कुछ करते है

मरी उम्मीदों को जिन्दा करके

नाकामियों के अँधेरो से 

कामयाबी के उजालों की ओर बढ़ते हैं

चलो आज फिर कुछ करते हैं।

सोया पुरुषार्थ जगाकर ,

अलसाये भाग्य को आँखें दिखाकर ,

मंजिल की ओर बढ़ते हैं ,

चलो आज फिर कुछ करते हैं।

राह रोक खड़ी चट्टानों को तोड़कर ,

कर्मों के वेग को उचित दिशा में मोड़कर ,

लहूलुहान हुए पैरों से ,

शूलों के मार्ग पर चलते हैं ,

चलो आज फिर कुछ करते हैं।

ये कैसी जिन्दगी

 मर मरकर जी रहा हूँ

जी जीकर मर रहा हूँ

ए जिन्दगी तू ही बता दे

ये मैं क्या कर रहा हूँ।

तबाह जिन्दगी को ढो रहा हूँ

औरों की खातिर मैं खुद को खो रहा हूँ।

कर्म मरणासन्न है

भाग्य बैठा बिछाए आसन है

न पग बढ़ा पा रहा हूँ

न पीछे हटा पा रहा हूँ

बस कल जहाँ था

आज वहीं खड़ा पछता रहा हूँ।

कर्म तो कभी किये नहीं मैंने

जाने किसके कर्मों की सजा पा रहा हूँ।

फैसला अपनी जिन्दगी का ले नहीं पाया खुद कभी

बस इसीलिए औरों के लिए फैसलों पर

जिन्दगी जिए जा रहा हूँ।




एक बुरा इंसान

 मैं साबित अक्सर बुरा ही हुआ हूँ

एक बार नहीं कई बार हुआ हूँ

मिलता है जब भी कोई अनजाना अजनबी

कहता है बस यही ,

तुम एक अच्छे इंसान हो

और बदल जाते हैं शब्द उसके ,

महज चार ही दिनों में ,

सुनने को मिलता है मुझको ,

अच्छा इंसान समझते थे तुमको हम ,

पर निकले तुम भी बुरे।

और बात हैरत की ये ,

चीख चीखकर सालों से ,

दिला रहा हूँ यकीं सबको ,

मैं बुरा इंसान हूँ ,

हाँ मैं एक बुरा इंसान हूँ।

पर करता नहीं कोई यकीं ,

वजह है बस इतनी सी ,

फैला है भ्रम लोगों में

कि ,

कहते है बुरा खुद को ,

अक्सर अच्छे इंसान ही ,

बुरा इंसान नहीं कहता बुरा

खुद को कभी।

कैसे समझाएं अब सबको ,

अपवाद हूँ मैं ,

ऐसा एक बुरा इंसान ,

जो न केवल बुरा है ,

बल्कि स्वीकार भी करता है ,

खुद के बुरे होने को।


बस चल दिए


होंश संभाला जब से ,

सुना तुमने बस इतना ही ,

कि ,

चलना है।

और तुम…

न सपनो को समझा ,

न मंजिल को जाना ,

बस चल दिए।

आया अगर राह में दोराहा ,

पूछा किसी अजनबी से , 

और ,

बता दिया उसने अपने हिसाब से ,

रास्ता कोई एक।

और तुम…

न सपनों को समझा ,

न मंजिल को जाना ,

बस चल दिए।

कहाँ पहुँचे हो आज तुम ?

जानते हो ?

नहीं ,

कैसे जानोगे तुम ?

तुम तो एक राही हो ,

चलना तुम्हारा काम है।

इसीलिए ,

जो राह दिखी उसी पर ,

बस चल दिए।

पर , 

राही क्या सिर्फ राही होता है ?

क्या वो इंसान नहीं होता ?

या उसके सपने नहीं होते ?

तब तो सुख दुःख भी नहीं होता होगा ?

नहीं ,

तुम्हारे भी सपने थे ,

तुम्हारी भी मंजिल थी।

पर , 

रुके नहीं तुम एक पल भी ,

जिसने जो राह दिखाई ,

उसी पर ,

बस चल दिए।

बहुत दूर निकल आए हो घर से ,

घर तो लौट नहीं सकते।

और ,

जाना कहाँ है , ये भी नहीं जानते।

तो ,

क्या करोगे अब ?

पूछोगे किसी और से ,

एक नई राह का पता ?

न सपनों को समझोगे ,

न मंजिल को जानोगे ,

बस चल दोगे।

एक बार फिर

सालों पहले हुए थे तैयार रेंगने को।

क्यों ?

क्यों ना होते !

सब कोई होते है ,

उम्र के एक पड़ाव में।

उस दौर में ,

जबकि ,

असंभव सपनों को संभव करने की , 

हर मुमकिन कोशिश नाकाम हो चुकी होती है।

क्यों ? 

क्योंकि ,

किशोरवय में निकल आये ' परों ' से उड़ान भरने को आतुर ,

कुछ ही दूर तक उड़ पाता है वो ,

और ,

होता है आभास उसे ,

उन बन्धनों का ,

जकड़ा है जिनसे वो सदा से ही।

सबसे बड़ा बन्धन होता है इनमें , 

' कुछ तो लोग कहेंगे '

और एक होता है ,

' असफल हो गए तो ? '

बन्धन , जो रोकते हैं इंसान को कुछ नया करने से।

बन्धन , जो रोकते हैं इंसान को कुछ अलग करने से।

करता है जब इंसान ,

दुःसाहस इन बन्धनों को तोड़ने का

और हो जाता है त्रुटिवश असफल अपने इनोवेशन में।

तब , 

प्रकट हो जाते है अपने साकार रूप में ये बन्धन ,

और लगते है कतरने ' पर ' उसके।

तब , 

करना पड़ता है समझौता उसे आम जिन्दगी से ,

और होना पड़ता है विवश रेंगने को।

हुए थे तैयार रेंगने को हम भी ,

रेंगते रहे सालों साल।

लेकिन अब , 

निकल आए हैं पर फिर से ,

हो रहे है आतुर उड़ान भरने को।

कितना उड़ पायेंगे ?

बन्धनों को कैसे तोड़ पायेंगे ?

और वो भी अब ?

उम्र के इस पड़ाव में !

रहने देते है इस बार ,

सवालों को सवाल ही

भरते हैं उड़ान फिर से।

हो गए असफल भी तो क्या ,

इतना ही तो होगा ,

कि कतर दिये जायेंगे ' पर ' फिर से !

रेंगने का विकल्प तो सुरक्षित है ही।

यह तुम ही हो

बसन्त का आगमन हुआ है ,
किसी ने इस दिल को छुआ है।

मन्द - मन्द शीतल - सी जो ये पवन है ,
लगता है तेरे ही स्पर्श की छुअन है।

खिल उठे बगिया में ज्यों ही फूल ,
ये दिल गया है सब कुछ भूल।

हो सुबह की कोयल का गुनगुनाना ,
या हो किसी चिड़िया का कोई गाना।

हर स्वर , हर शब्द के साथ जुड़ा है ,
बस यही तराना।
यह तुम ही हो , यह तुम ही हो।

शीतल चांदनी रात हो ,
या तुमसे जुड़ी कोई बात हो।

वृक्षों पर पत्ते नये आये  ,
या पूरी धरती पर हरियाली छाए।

हर लम्हा याद तेरी ही आती है ,
मेरी रुह मुझे अहसास बस यही कराती है।
यह तुम ही हो , यह तुम ही हो।

दो उल्लू



एक डाल पर बैठे दो उल्लू ,
एक गया मनाली, एक गया कुल्लू ।
उल्लूओं में छिड़ी जंग ,
दिखाया सबने अपना रंग ।
हो चाहे कोई कितना ही तंग,
डाल ना छोडेंगे
रहेंगे सब यहीं संग।
लौट आये दोनों उल्लू  ,
गये थे जो मनाली और कुल्लू ।
बोले  - ' रहेंगे हम भी यहीं,
ना जायेंगे ये डाल छोड़कर कहीं । '
बोला बुजुर्ग एक उल्लू -
" लौट आये क्यों तुम
छोड़कर मनाली और कुल्लू ? "
बोले दोनों - " नहीं रहना वहां,
पडती हो भीषण ठण्ड जहां। "
बिछा ना पाये अपना जाल,
ना हासिल कर पाये कोई डाल ।
लौट आये बस इसीलिये
दोनों उल्लू ,
छोड़कर स्वर्ग जैसा ,
मनाली और कुल्लू ।

                               - स्वरचित ( विजय कुमार बोहरा )

घूमना अच्छा लगता है मुझे



घूमना अच्छा लगता है मुझे,
बचपन से ही;
यहाँ-वहाँ,
इस नगर- उस नगर।

पर,

बचपन में तो जा नहीं पाता था,
हर कहीं अपनी मर्जी से।

लेकिन,

अब निकल जाता हूँ हर कहीं,
खुद अकेला ही,
कहीं भी,
किसी भी राह पर,
किसी भी डगर पर।

देखे हैं नगर कई,
जंगल और पहाड़ भी,
कई नदियां और झरने भी।

पर,

मिटी नहीं तलब घूमने की,
कहीं कुछ छूट गया हो जैसे,
कोई एक जगह है ऐसी,
जहाँ घूमने की इच्छा बचपन से है।

हाँ, याद है मुझे,
एक जगह के बारे में सुना था मैंने,
दादी की कहानियों में,
या शायद स्कूल की किताबों में।

ऐसी जगह है एक,
जहाँ रहते है सब लोग,
मिल-जुल कर,
बिना किसी भेदभाव
या ईर्ष्या-जलन के।

न उनमें कोई हिन्दू है,
न है मुसलमान,
न कोई सिख है उनमें,
न है कोई इसाई।

मज़हब उनका एक है,
मानवता जिसे कहते हैं।

एक- दूजे की उन्नति देख कर,
होते है खुश वे,
और,
जब देखते हैं पतन किसी का,
हो जाते है दुखी,
वे खुद भी।

ऐसी ही है एक जगह दुनिया में कहीं,
खोज रहा हूँ बचपन से उसे,
मिली नहीं अब तक,
पर खोज जारी है,
मिलेगी जरुर,
आज नहीं तो कल सही।

चीटफंड कम्पनी







चीटफंड कम्पनी की एक मीटिंग!
" हम एक नया प्रोजेक्ट लाये हैं,

अतुल धन-सम्पदा कमाने को हमने

कई हथकण्डे अपनाए है।

हो नहीं पाये सफल अभी तक हम,

नहीं है फिर भी कोई गम।"

- भूमिका बांधने के साथ ही कम्पनी के प्रेसीडेंट ने अपना वक्तव्य शुरू किया।

" क्योंकि आज हम चीटफंड कम्पनी के जरिये लोगों को चीट कर करके फंड जमा करेंगे। लोग हमसे फंड  के रिफंड की आशा करेंगे और हम सारा फंड लेकर रफूचक्कर हो जायेंगे। "

" लेकिन यह संभव होगा कैसे ?

हम तो अक्सर ही हारते रहे है वैसे। " - एक कर्मचारी ने सवाल दागा।

" नहीं करो तुम जरा भी फिक्र,

कर रहा हूँ अब मैं बस इसी मुद्दे का जिक्र। " प्रेसीडेंट की वाणी में उत्साह था।

" हमारी कम्पनी का हर एक कर्मचारी अपने नीचे एक आदमी को जोडेगा, जुडने वाला आदमी ज्वाइनिंग फीस के रुप में 1000 रुपये जमा करेगा। यह 1000 रुपया सीधे चीटफंड कम्पनी के खाते में जमा होगा। कम्पनी उस आदमी को लाइफ टाइम हर महीने 100 रुपये रिफंड देगी। वह आदमी अपने नीचे दो आदमियों को जोडेगा और वे दो आदमी भी अपने नीचे दो- दो आदमियों को जोडेंगे। इस तरह से आदमी जुडते जायेंगे, हमारी कम्पनी का प्रोफिट बढता जायेगा और हम जुडने वाले हर आदमी को 100 रुपये हर महीने देते जायेंगे। "

मीटिंग में उपस्थित सभी कर्मचारी पेशोपेश में पड गये।

" लेकिन, इससे हमें क्या लाभ होगा ? " - एक कर्मचारी ने साहस करके पूछा।

प्रेसीडेंट ने हल्के से मुसकराते हुए कहा- " 6 महीने में ही हमारे चंगुल में  लाखों मुफ्तखोर फंस जायेंगे और सातवें महीने में हम कम्पनी बंद करके रफूचक्कर हो जायेंगे। "
प्रेसीडेंट की बुद्धीमत्ता पर हाॅल तालियों की गडगडाहट से गूंज उठा।
सभा की सफलता पर सबने एक दूसरे को बधाई दी।
इसी के साथ मीटिंग समाप्त हुई।