बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

रहस्यमयी प्रतिमा ( भाग - 3 ) - दो घटनाएँ


 “ कल शाम 7 बजे ऑफिस से निकालकर मैंने पार्किंग प्लेस से अपनी बाईक उठाई और अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट ‘ नीलम रेस्टोरेंट ‘ की ओर रुख किया, जो ऑफिस से घर के रास्ते में दो ही किलोमीटर की दूरी पर है। दिनभर के काम की थकान के बाद घर जाकर डिनर बनाने के झंझट से बचने के लिए अक्सर मैं अपना डिनर वहीं लेता हूँ। वहाँ मैंने हमेशा की तरह आराम से डिनर किया। इसके बाद मैं घर की ओर चल पड़ा। शहर की व्यस्त सड़कों और 2 - 3 ट्रैफ़िक सिग्नल को क्रॉस करके घर पहुँचते पहुँचते मुझे एक घंटा लग गया। “ - पिछली रात दक्ष के साथ जो दो घटनाएँ घटित हुई थी, उनके बारे में वह विस्तार से स्नेहा को बता रहा था। 

“ मतलब, घर पहुँचते पहुँचते तुमको आठ बज गए। “ 

“ हाँ। और जैसा कि तुम जानती हो, मेरा घर मेहताब रोड़ के अपने डेली न्यूज़ ऑफिस से महज 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित विनायक कॉलोनी में है। “

“ हाँ। जानती हूँ और मैं कई बार आई भी हूँ वहाँ। “ - स्नेहा बोली - “ जो मुझे पहले से पता है, उसके बारे में बोलने के बजाय तुम सीधे मुद्दे पर क्यों नहीं आते ! “

“ अब तुम्हीं ने तो कहा था, पूरी डिटेल में बताने को। “ दक्ष मासूमियत भरे अंदाज में बोला। 

स्नेहा ने गुस्से भरी नजरों से दक्ष की ओर देखा। 

“ अच्छा। ठीक है। अब आता हूँ असली बात पर। “ - हँसते हुए दक्ष ने वाकया आगे बढ़ाया - “ घर पहुँचकर मैंने अपनी बाईक को घर के बाहर ही पार्क किया, अपने बैग में से घर की चाभी निकाली और लॉक खोलकर भीतर दाखिल हुआ। इसके बाद ऑफिस बैग और हेलमेट उनके नियत स्थान पर रखकर मैंने टेलीविजन ऑन किया। आरामदायक वस्त्र पहनकर कुछ देर रिमोट से चैनल चेंज करता रहा। “

“ क्या कर रहे हो ! “ - स्नेहा अचानक से गुस्से में बोली - “ घर में तुमने क्या किया, क्या नहीं किया - ये सब छोड़कर बताओगे भी कि आखिर घटित क्या हुआ तुम्हारे साथ ? “

“ अरे, अरे! “ - दक्ष समझाने के अंदाज में बोला - “ बस में आ ही रहा हूँ टॉपिक पर। “

स्नेहा थोड़ी शांत हुई। 

दक्ष ने बात आगे बढ़ाई - “ करीब आधे घंटे तक टीवी देखने के बाद मैंने वही किया जो मैं हमेशा किया करता हूँ। बैठे बैठे अपने अतीत और भविष्य के बारे में सोचना और इससे उकताहट होने पर नाईट वॉक पर निकलकर मिलने वाले परिचितों और पड़ोसियों से बतियाना, उनके हाल चाल मालूम करना, कुछ उनकी सुनना, कुछ अपनी सुनाना और अंत में लौटकर फिर घर आना।.. यह सब करते करते किसी तरह दस बज गए, जो कि मेरे रुटिन के मुताबिक मेरा सोने का वक्त होता है।… तो दिनभर का थका हारा मैं बिस्तर के हवाले हुआ। “

“ फिर ? “ - पूछते हुए स्नेहा बिल्कुल सावधान होकर बैठ गयी, क्योंकि उसे पता चल चुका था कि जिन घटनाओ को सुनाने के लिए दक्ष ने इतनी लंबी चौडी भूमिका बाँधी थी, प्रस्तावना तैयार की थी, उनको सुनने का वक्त आ चुका था। 

“ अब तक तो वही सब चल रहा था, जो हर रोज चलता है। दस बज चुके थे और अब सोते समय मैं यही सोच रहा था कि जब सुबह मेरी आँख खुलेगी तो फिर से वही उठकर तैयार होना, ऑफिस जाना और अपना डेली रुटिन फॉलो करना होगा। वह सब तो खैर होना ही था। लेकिन वो सब होने से पहले पूरी एक रात बाकी थी और इस रात में क्या कुछ होने वाला था, इसका मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था।

हर रात की तरह इस रात भी मैं घोड़े बेचकर सो गया। लेकिन सुबह तक सोया ही न रह सका। रात को करीब एक बजे के आसपास मेरी आँख खुली। आँख खुलते ही कानों में झमाझम… झमाझम की आवाज पड़ी। बाहर बहुत तेज बारिश हो रही थी।… तो क्या इसी वजह से मेरी आँख खुली थी ? तेज मूसलाधार बारिश ने मेरी नींद में खलल डाला था ?... ये एक वजह हो सकती थी। लेकिन सिर्फ यही एक वजह थी, इस पर मुझे संदेह था।…क्योंकि बारिश की झमाझम के साथ ही एक आवाज और मुझे सुनाई दे रही थी। वह आवाज बहुत तेजी से और लगातार आए जा रही थी।

दरवाजा खटखटाने की आवाज! 

इलेक्ट्रिक बेल होने के बावजूद घर का मुख्य दरवाजा खटखटाने की आवाज! 

वो भी रात के इस वक्त! 

क्या मामला था ? 

पता करने के लिए मुझे न केवल बेड से उठना था, बल्कि दरवाजा खोलकर देखना भी था कि आखिर रात के एक बजे बिना किसी पूर्व सूचना के आने वाला शख्स आखिर था कौन! और सबसे बड़ा रहस्य कि डोरबेल होने के बाद भी वह दरवाजा क्यों खटखटा रहा था ? 

किसी अनिष्ट की आशंका से मेरा हृदय ‘ धाड - धाड ‘ बज रहा था और यही वो पल था जब मुझे अपनी लाइसेंसी रिवॉल्वर याद आई। 

अलमारी की दराज में से रिवॉल्वर निकालकर उसके चैंबर को बुलेट से लोड किया।

इसके बाद बिल्कुल सधे कदमों से मैं बेडरूम से बाहर निकला और बाहर हॉल में चलते हुए घर के मेन गेट तक पहुँचा। दरवाजा खटखटाने की आवाज अब भी आ रही थी। आगंतुक जो कोई भी था, लगातार हाथ से दरवाजा खटखटाये जा रहा था। 

दाहिने हाथ में रिवॉल्वर थामे, बाएँ हाथ से मैंने तेज गति से दरवाजा खोला और अंगुली ट्रिगर पर रखकर रिवॉल्वर का रुख आगंतुक की ओर कर दिया। 

इसके बाद जो मैंने देखा, वो मेरे लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। मेरे सामने चेहरे पर खौफ के भाव लिए एक लड़की खड़ी थी। “ - बताते हुए दक्ष ने कॉफी का आखिरी घूँट हलक से नीचे उतारा और कप को मेज पर रख दिया। 

“ लड़की! “ - चकित स्वर में स्नेहा बोली - “ तुम्हारी कोई परिचित होगी। “

“ नहीं। मैं उसे जानता तक नहीं। वो सूरत ही मैंने लाइफ में पहली बार देखी। “

“ एक अनजान लड़की! आधी रात को! “ - आश्चर्य के साथ कुछ सोचते हुए स्नेहा बोली - “ जरूर किसी मुसीबत में फंसी होगी। “

“ हाँ। बोलती तो वो ऐसा ही थी। “ - कहते हुए दक्ष ने श्रद्धा की पूरी कहानी बताई। 

“ ओह! “ - स्नेहा बोली - “ तो वह घर से भागी हुई लड़की है और उसे डर है कि उसके चाचा उसकी खोज करते हुए किसी भी वक्त यहाँ शहर में आ सकते हैं। “

“ हाँ और अभी उसने मुझे अपनी रामकहानी सुनाकर खत्म की ही थी कि अचानक से घर का मेन डोर खुला, पर बेहद धीमी गति से। 

असल में, हुआ यह था कि उस अजनबी लड़की के आने के बाद से ही मेरा सारा ध्यान उसी पर था। मुझे डर था कि वो मेरे लिए खतरा ना बन जाए। इसीलिए मैंने उसे उस समय तक रिवॉल्वर की नोक पर रखा, जब तक कि मुझे उस पर पूरा भरोसा नहीं हो गया। इस बीच मैं घर का मेन डोर भीतर से बंद करना भूल ही गया था और उसी का परिणाम था कि

वे बिना किसी परेशानी के मेन डोर से घर में दाखिल हो गये। 

वैसे तो रात के समय किसी अजनबी सज्जन से दिखने वाले इंसान को भी मैं संदेह की नजरों से देखता और उससे वैसा ही बर्ताव करता, जैसा कि मैंने श्रद्धा के साथ किया। पर, यहाँ तो मामला बिल्कुल ही क्लियर था। वे दो थे और दोनों के ही न केवल चेहरे मास्क से ढँके थे, बल्कि हाथों में चाकू भी थे। उनके खतरनाक इरादों को भाँपने में मुझे एक पल भी नहीं लगा और अपनी रिवॉल्वर से दनादन दो फायर मैंने उनके घुटनों पर किए। “

शेष अगले भाग में




मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

रहस्यमयी प्रतिमा ( भाग - 2 ) - कल रात की घटना


 कंप्यूटर के की बोर्ड पर उसकी नाजुक अंगुलियाँ तेजी से शिरकत कर रही थी। टाईपिस्ट कम रिपोर्टर की इस जॉब में पैसा ज्यादा नहीं था, लेकिन एडवेंचर बहुत था और इसी एडवेंचर के लिए उसने करियर के रूप में पत्रकारिता को चुना था।

हर किसी की बेवजह मदद करने की अपनी आदत की वजह से भी उसने इस करियर को चुना था।

डेली न्यूज़ एजेंसी के दफ्तर में इस समय करीब 20 कर्मचारी कार्य कर रहे थे। इन सभी के ओपन कैबिन थे, जिनमें एक कंप्यूटर, प्रिंटर, दो बड़ी सी डेस्क और 3 - 4 चेयर रखी हुई थी।

स्नेहा उन्हीं में से एक थी।

यह दफ्तर शौर्य अपार्टमेंट की सातवीं मंजिल पर था।

“ हैलो, स्नेहा! “ - इस आवाज को सुनकर उसने अपनी नजरें कंप्यूटर स्क्रीन से हटाई और खुद को सम्बोधित करने वाले शख्स की ओर उसकी तवज्जो गई।

“ हाय दक्ष! हाऊ आर यू ? “ - मुस्कुराते हुए वह बोली।

“ आई एम फ़ाईन। तुम सुनाओ। क्या चल रहा है ? “ - एक चेयर पर बैठते हुए दक्ष बोला।

“ खास कुछ नहीं। बस वही हर रोज वाला डेली वर्क। “ - स्नेहा बोली - “ वैसे, आज काफी लेट आए तुम ? “

“ हाँ। आज उठा ही देर से था, इसीलिए पूरे एक घंटा देरी से आया हूँ। “

“ देर से उठे ?... क्यों ? “

“ इस क्यों का जवाब थोड़ा लंबा और सस्पेंस भरा है। “

“ लंबा तो ठीक है, पर सस्पेंस भरा ? “ - चकित स्वर में स्नेहा बोली।

“ हाँ और इसीलिए मैं सोच रहा था कि क्यों न बाहर कैंटीन में चलकर कॉफी पीते हुए तुम्हारे इस सवाल का जवाब दिया जाये। “

“ क्या ? “ - स्नेहा को फिर से चोंकना पड़ गया - “ क्या बात कर रहे हो दक्ष!... तुम जानते हो ना कि अगर बॉस राउंड पर आया और उसने हमें अपने कैबिन से गायब पाया तो… “

… तो क्या हो जायेगा ? “ - स्नेहा की बात पूरी होने से पहले ही दक्ष बोल उठा - “ वो हमें जॉब से डिसमिस कर देगा ? “

“ इतनी तो उसकी हिम्मत हो नहीं सकती। “ - स्नेहा बोली - “ लेकिन ये ठीक नहीं होगा। “

“ टेंशन मत लो। हम जल्दी वापस आ जायेंगे। “ - दक्ष चेयर से उठते हुए बोला - “ चलो भी अब। “

“ मतलब, तुम घर से कॉफी पीकर नहीं आए हो। “

“ सही कहा। “

“ क्यों ? “

“ बताया तो, लेट उठा था तो जल्दी से तैयार होकर दौड़ते - भागते यहाँ आया हूँ। “

“ ओके। “ - बोलते हुए स्नेहा ने ‘के’ को थोड़ा लंबा खींचा।

यह उसकी रेगुलर हैबिट थी।

वे धीमी गति से चलते हुए ऑफिस से बाहर निकले। फिर कुछ देर कॉरिडोर में चलते हुए लिफ्ट तक पहुँचे।

दक्ष ने लिफ्ट का बटन दबाया।

कुछ देर बाद लिफ्ट सातवें फ्लोर पर रुकी। उसका गेट खुला।

स्नेहा और दक्ष लिफ्ट में प्रविष्ट हुए।

दक्ष ने लिफ्ट का G वाला बटन दबाया।

अब लिफ्ट ग्राउंड फ्लोर की ओर बढ़ने लगी।

ग्राउंड फ्लोर पर लिफ्ट से निकलकर वे अपार्टमेंट से बाहर निकले। वॉकिंग डिस्टेंस पर ही पुरोहित रेस्टोरेंट था।

वे वहीं पहुंचे।

ग्लास के बड़े से डोर को धकेलते हुए वे रेस्टोरेंट में दाखिल हुए। लोगों की भीड़ से भरे रेस्टोरेंट में बड़ी मुश्किल से उन्हें कॉर्नर की एक टेबल खाली दिखी। उसी टेबल की ओर वे बढ़े।

“ तो क्या हुआ ऐसा, जिसकी वजह से आज तुम देरी से उठे ? “ - चेयर पर बैठते ही स्नेहा ने पूछा।

“ बताता हूँ। पहले कॉफी तो ऑर्डर कर लूँ। “ - कहते हुए दक्ष ने हाथ के संकेत से वेटर को बुलाया।

दो कॉफी का ऑर्डर करने के बाद दक्ष बड़े ही नाटकीय ढंग से बोला - “ कल रात जो हुआ, उसकी मैंने कभी कल्पना तक नहीं की थी। “

“ अच्छा! “ - चकित स्वर में स्नेहा बोली - “ मैं बड़ी उत्सुक हूँ जानने के लिए, आखिर हुआ क्या ! “

“ तुम जानती हो ना कि मैं हमेशा अपने पास एक लाइसेंसी रिवॉल्वर रखता हूँ। “

“ हाँ। पता है मुझे। तीन साल पहले डेली न्यूज़ को जॉइन करते ही सबसे पहला काम तुमने एक लाइसेंसी रिवॉल्वर खरीदने का ही किया था। “

“ और तुमने कहा था कि हमे कभी इसकी जरूरत नहीं पड़ने वाली, यह फालतू का खर्च है जो मैंने किया। “

“ हाँ ऐसा ही कहा था और क्या गलत कहा था। आज तक हमें उसका इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं पड़ी और आगे भी मुझे तो ऐसी कोई संभावना नहीं लगती। “

“ मानता हूँ। “ - सहमत होते हुए दक्ष बोला - “ लेकिन, कल रात वह मेरे बड़ा काम आई। “

“ क्या ? “ - स्नेहा हैरत भरे स्वर में बोली - “ तुमने…तुमने रिवॉल्वर का इस्तेमाल किया ?... किस पर ? “

“ दो थे वो। “ - मुस्कुराते हुए दक्ष बोला - “ उनको जरा भी उम्मीद नहीं थी कि उन पर यूँ अचानक हमला हो जायेगा। “

“ अरे, हुआ क्या! जरा डिटेल में बताओ ना। “ - स्नेहा पूरी बात जानने के लिए उत्सुक थी।

इसी समय कॉफी आ गई।

वेटर ने कॉफी के दो बड़े कप मेज पर रखे और चला गया।

“ रात को करीब दो बजे वे मेरे घर के भीतर घुसे। “ - दक्ष ने कॉफी का कप उठाते हुए बताना शुरू किया - “ उनके चेहरे काले मास्क के पीछे छिपे थे और हाथों में चाकू थे। उनका हुलिया देखते ही मुझे खतरे का आभास हुआ और मैंने अपनी रिवॉल्वर से एक - एक फायर उनके घुटने पर किया। “

“ क्या ? “ - कॉफी सिप करते हुए स्नेहा ने आश्चर्य से कहा - “ क्या बेकार की फिल्मी कहानी सुना रहे हो! ऐसा भी भला कहीं होता है! तुम तो ऐसे बोल रहे हो, जैसे उनके भीतर दाखिल होते समय रिवॉल्वर तुम्हारे हाथ में ही थी। “

“ थी। “

“ क्या ? “

“ रिवॉल्वर मेरे हाथ में ही थी। “

“ आधी रात के समय! … तुम रिवॉल्वर साथ लेकर ही सोते हो क्या! “

“ नहीं। रिवॉल्वर साथ लेकर तो नहीं सोता। लेकिन, संयोग की बात कि उस वक्त रिवॉल्वर मेरे हाथ में ही थी और ऐसा इसलिए था, क्योंकि अभी जो मैंने तुमको सुनाई, वो तो कल रात की दूसरी घटना थी। पहली घटना तो तुमने अभी सुनी ही नहीं। “ - मुस्कुराते हुए दक्ष बोला।

“ दूसरी घटना!... क्या मतलब है तुम्हारा ? कल रात क्या तुम्हारे घर घटनाओ का सैलाब आया था ? “

“ ऐसा ही कुछ समझ लो। “

“ तुम सीधे सीधे पूरी बात नहीं बता सकते ना।.. छोटी छोटी बातों को भी सस्पेंस क्रिएट करते हुए किश्तों में बताने की घटिया आदत जाने वाली नहीं तुम्हारी। “

“ अरे! तुम तो नाराज हो गयी। अच्छा ठीक है। मैं अब शुरू से बताता हूँ कि कल रात मेरे साथ क्या क्या हुआ था। “

“ हाँ और पूरी डिटेल में। ऑफिस से निकलने के बाद से ही शुरू करो। “

“ ठीक है। “

- शेष अगले भाग में


स्वागत है!

 


ट्रेन चल रही है

शाम ढल रही है

आने को है स्टेशन कोई

कुछ तो कमी खल रही है। 


यादों में कोई

बातें किसी और से

रूप इंसान का एक, 

हैं चेहरे कई कई। 


सच्चा कौनसा

कौनसा है झूठा

समझने का हुनर आ गया जिसको

समझो वही है सिकंदर। 


खेल क्या है

खेलना कैसे है

पहले जानो

फिर समझो

फिर खेलकर 

जिंदगी अपनी धूल कर दो। 


पाना क्या है

कुछ नहीं

खोना क्या है

अपना सब कुछ। 


हो गर तैयार खेलने के लिए

स्वागत है झूठे चेहरों की इस दुनिया में

करने को जिंदगी अपनी धूल

करने को जीवन की सबसे बड़ी भूल। 

स्वार्थ इर्ष्या नफरत और संशय के इस घिनोने संसार में

स्वागत है।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2024

खुशी का रहस्य - कविता



 चिड़िया चहक रही है

खुशियाँ महक रही है

घर आँगन द्वार में

दीपमाला दहक रही है। 

दिवाली की सुबह है

फिजा में हल्की सी ठंडक है। 

खुशियों का त्योहार है

हर तरफ रंगोली की बहार है। 

मन फिर क्यों अनमना सा है

क्यों बेचेन, हैरान, परेशान है! 

निकल जाता हूँ

बस यूँ ही घर से

करने को चहल कदमी

सजे बाजार सजी दुकानें देखने को। 

रौनक है हर तरफ

हर कहीं उत्साह है

दिवाली है ये

दीपों का त्यौहार है। 

देखता हूँ इतने में ही

खड़ा एक मासूम

7 - 8 वर्ष का 

दुकान के सामने

सजी है जो मिठाइयों से। 

देख रहा ललचाई नजरों से

अधफटे वस्त्रों में 

बिखरे बालों वाला

वह मासूम। 

खरीदकर उसकी मनचाही मिठाई

थमा दी 

हाथों में उसके

और लौट पड़ा घर की ओर

नहीं था अब अनमना मन मेरा

था वह तो पूरी तरह संतुष्ट। 


मंगलवार, 22 अक्तूबर 2024

रहस्यमयी प्रतिमा ( भाग - 1 ) - श्रद्धा और दक्ष

 


रात का समय। 

मूसलाधार बारिश! 

ऐसे समय में, जबकि ज्यादातर लोग, अपने - अपने घरों में दुबके हुए थे, एक लड़की… एक अकेली लड़की शहर की सड़कों पर बदहवास सी दौड़ी चली जा रही थी। 

उसने पीले रंग की प्रिंटेड साड़ी पहनी हुई थी, जैसा कि अक्सर गाँव की लड़कियाँ पहना करती है। 

उसके हाथ में पुराने से कपड़े की एक छोटी सी गठरी भी थी, जिसमें शायद उसकी जरूरत की कुछ वस्तुयें थी। 

बारिश तो बहुत दूर की बात है, मूसलाधार बारिश तक की उसे कोई परवाह नहीं थी। 

किसी इमारत की छत के नीचे रुककर वह बारिश में खुद को भीगने से बचा सकती थी, लेकिन वह ऐसा कुछ भी करने के मूड में नही थी। 

पर भागती भी तो आखिर कहाँ तक! 

आखिरकार तो उसे कहीं न कहीं रुकना ही था, कहीं तो शरण लेनी ही थी! 

अंततः थककर उसने शहर के अंदरूनी इलाके की किसी कॉलोनी के एक घर का दरवाजा खटखटाया। 

“ ठक्… ठक्! ठक्.. ठक्! “ - हाथ से वह दरवाजा लगातार खटखटाये जा रही थी। 

कुछ ही देर में दरवाजा खुला। 

और जो उसने अपने सामने देखा, वह उसके होंश उड़ा देने के लिए काफी था। 

दरवाजा खुलते ही उसने एक रिवॉल्वर देखी, जिसकी नाल का रुख उसी की ओर था। 

मारे भय और हैरत के उसकी आँखें अपने स्वाभाविक आकार से कुछ ज्यादा ही बड़ी हो चली थी। 

यह वो किस घर का दरवाजा खटखटा बैठी थी! 

“ कौन हो तुम ? “ - रिवॉल्वर थामे शख्स ने कठोर स्वर में पूछा। 

दरवाजा खुलने के बाद से ही वह सिर्फ रिवॉल्वर और अपनी मौत के बारे में ही सोच रही थी। 

उस शख्स की तरफ उसका ध्यान ही नहीं गया, जिसके हाथ में वह रिवॉल्वर थी। 

अब जबकि उस शख्स ने सख्ती से एक सवाल पूछा, तो उसका ध्यान उस शख्स की तरफ गया। 

वह करीब 26 - 27 साल का एक नौजवान लड़का था, जो देखने में काफी आकर्षक लग रहा था। 

अपने चेहरे पर सख्ती के भाव लाने और उसे पर्याप्त कठोर बनाने का भरसक प्रयास करने के बाद भी उसके चेहरे की सौम्यता बरकरार थी। 

“ जल्दी बोलो। कौन हो तुम और यहाँ क्यों आई हो ? “ - लड़की को कोई जवाब देते न देखकर उसने फिर से पूछा। 

खुद को संभालने की कोशिश करते हुए वह बोली - “ य.. यह रिवॉल्वर तो हटाओ पहले सामने से! “

उस शख्स ने रिवॉल्वर नीचे की और बोला - “ अब बताओ। “

“ अंदर तो आ जाऊँ पहले। बाहर तेज बारिश है, भीग रही हूँ और सर्दी भी लग रही है। “ - बोलते हुए उसने एक कदम आगे बढ़ाया। 

उस शख्स ने रिवॉल्वर फिर से उस पर तानी और बोला - “ फालतू बकवास नहीं। जल्दी से बताओ, कौन हो और रात के इस वक़्त यहाँ क्यों आई हो ? “

“ अरे! “ - अब उसे गुस्सा आ गया - “ ये क्या तुम बात - बात पर रिवॉल्वर निकाल लेते हो! एक बेसहारा और दुखियारी अबला आधी रात के समय इस मूसलाधार बारिश में तुम्हारे घर के बाहर खड़ी भीग रही है। तुमको जरा भी दया नहीं आती क्या ? “

अचानक बदले लड़की के तेवर देखकर वह चकित रह गया। 

एक क्षण विचार करने के बाद उसे लड़की की बात सही लगी और उसने अपने कदम पीछे करके उसे भीतर आने देने के लिए दरवाजे से हट गया, लेकिन रिवॉल्वर की नाल का रुख उसने अभी भी लड़की के सिर की ओर ही कर रखा था। 

लड़की सजग निगाहों से घर का मुआयना करते हुए धीरे धीरे चलते हुए भीतर प्रविष्ट हुई। 

बारिश में बुरी तरह से भीग जाने के कारण वह ठंड से काँप रही थी। 

“ सामने गेस्ट रूम है। तुम वहाँ जाकर वस्त्र बदल सकती हो। “ - वह शख्स बोला। 

“ लेकिन मेरी तो पूरी गठरी ही भीग गई है। “ - वह अपने हाथ में थमी कपड़े की बनी पोटली की ओर संकेत करते हुए बोली। 

“ चिन्ता नहीं करो। वहाँ तुम्हें तुम्हारे लायक कुछ तो मिल ही जायेगा। “ 

“ ठीक है। “ - ठंड से काँपते हुए वह बोली और भीतर गेस्ट रूम में चली गई। 

गेस्ट रूम काफी बड़ा था। वहाँ लोहे की एक बड़ी सी अलमारी थी, जिसे खोलकर देखने पर उसे कई सारे कपड़े मिले। 

कुछ देर बाद वह बाहर आई तो उसने एक रेड कलर का टी शर्ट और जीन्स धारण की हुई थी।

“ अब बोलो कौन हो तुम ? “

“ अरे! तुम तो वहीं के वहीं अटके हुए हो। “ - अपनी ओर रुख की हुई रिवॉल्वर को देखते हुए वह बोली - “ मुझे तो बिल्कुल भी नहीं लगता कि तुम इसे चलाना भी जानते हो। “

“ जल्दी बताओ कौन हो तुम ? “

“ ठीक है। बैठ तो जाऊँ पहले। “ - वहीं रखे एक सोफा चेयर पर बैठते हुए वह बोली - “ मेरा नाम श्रद्धा है और मैं पास ही के गाँव सुजानपुर की रहने वाली हूँ। यह बहुत छोटा सा गाँव है। तुमने तो शायद कभी ये नाम भी नहीं सुना होगा। “

“ आगे बोलो। “ 

“ वैसे तो सुजानपुर बहुत ही अच्छी जगह है। वहाँ के लोग भी बहुत अच्छे है। लेकिन, मेरे पिता के बड़े भाई यानी कि मेरे चाचाजी कोई बहुत अच्छे इंसान नहीं है। मेरे बचपन में ही मेरे माता पिता के निधन के बाद से मेरे पालन पोषण की जिम्मेदारी मेरे चाचा और चाची ने ले ली थी। चाचा का कोप मुझ पर जब कभी बरसता ही रहता था, लेकिन मेरी चाची सुलोचना एक अच्छी महिला है। वे मेरा बहुत ध्यान रखती थी। चाचा की दुत्कार को मै चाची के प्यार के सहारे झेल लेती थी। सब कुछ ठीक ही चल रहा था। पर कल बात कुछ ज्यादा ही बढ़ गई, जिसके बारे में मुझे तो भनक तक नहीं पड़ी। वो तो भला हो मेरी हितैषी चाची का, जिन्होंने आज सुबह चाचा के काम पर जाते ही मुझे सब कुछ बताकर घर से भागने की सलाह दे डाली। “

“ क्या हुआ था ? “

“ गाँव का एक पैसों वाला बिगडेल शराबी प्रौढ़ व्यक्ति दातादीन मुझसे शादी करना चाहता था। बहुत समय से पीछे भी पड़ा था। पर वो मेरे से दोगुनी से भी ज्यादा उम्र का आदमी है। उससे भला क्यों मेरी शादी होती। लेकिन उसने कोई तिकडम लगाकर चाचा को इस शादी के लिए राजी कर लिया। “

“ और वे मान गये ? “

“ वैसे तो नहीं मानते। पर उस दुष्ट ने लालच ही ऐसा दिया कि मान गए। “ - श्रद्धा बता रही थी - “ वह न केवल बिना दहेज के मुझसे शादी करने के लिए तैयार हो गया, बल्कि ऊपर से दस लाख रुपये चाचा को देने की पेशकश रख दी। “ 

“ और इसीलिए तुम्हारे चाचा उससे तुम्हारी शादी कराने के लिए मान गए ? “ 

“ हाँ। लेकिन चाची को पैसों से ज्यादा मेरी जिंदगी की परवाह थी। अपनी उम्र से दोगुनी उम्र के आदमी से शादी करना आत्महत्या करने की तरह है, ऐसा मानने वाली चाची ने मुझे घर से भागने की सलाह दे डाली। “

“ और तुम घर से भाग आई ? “

“ हाँ। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। जब से होंश संभाला है, गाँव तो बहुत दूर की बात है, अपने घर की दो गलियों से आगे कभी नहीं गई और यहाँ तो ये भी नहीं पता था कि गाँव छोड़कर जाना कहाँ है। “

“ किसी रिश्तेदार का नाम नहीं सुझाया तुम्हारी चाची ने, जहाँ जाकर तुम रह सकती थी ? “ 

“ फायदा क्या होता ? मेरा दुष्ट चाचा मुझे ढूँढ न लेता ! चाची तो किसी ऐसी जगह मुझे भेजना चाहती थी, जहाँ कि वो खुद भी चाहे तो मुझे ढूँढ न सके। “

“ ओह। “ - वह शख्स बोला - “ फिर ? “

“ फिर क्या.. “ - विस्मित होते हुए श्रद्धा बोली - “ फिर मैं यहाँ शहर में आ गई। “

“ गुड।… अच्छी कहानी है। “

“ क्या ? “ 

“ कहानी, जो तुमने सुनाई, बहुत अच्छी है। “ 

“ य… ये कोई कहानी नहीं, मेरी आपबीती है। “

“ जो भी हो, है अच्छी। “ - व्यंग्यपूर्ण तरीके से मुस्कुराते हुए वह शख्स बोला - “ तुम चाहो तो इसे मैं अखबार में छाप सकता हूँ। “

“ क… क्या ? “ - खौफ़जदा होते हुए वह बोली - “ तुम ऐसा कर सकते हो ?... कैसे कर सकते हो ?... तुम्हारी पहचान है अखबार के कार्यालय में ? “

“ पहचान ? “ - वह उसी तरह व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कुराते हुए बोला - “ मैं खुद एक जर्नलिस्ट हूँ। “

“ क्या ? क्या हो ? “ - श्रद्धा उलझनपूर्ण स्वर में बोली। 

“ जर्नलिस्ट। रिपोर्टर। पत्रकार। “

“ अरे, नहीं। मैं तुमसे विनती करती हूँ। प्लीज ये सब अखबार में न छाप देना। क्योंकि, चाचा मेरी तलाश में कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं। “

“ ठीक है। तुम चिन्ता नहीं करो। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा। पर, एक बात बताओ। “

“ पूछो। “

“ ये जो कुछ भी तुमने बताया, सब सच है ? “

“ हाँ। सच है। भला मैं झूठ क्यों बोलूँगी ! “

“ ठीक है। तो तुम अब आगे क्या करोगी ? “

“ आगे ? “

“ हाँ। कहाँ जाओगी ?... क्या करोगी ? सोचा है कुछ इस बारे में ? “

“ नहीं। मुझे नहीं पता। पर तुम चिन्ता मत करो। वो तो अचानक बारिश आ जाने की वजह से मुझे यहाँ आना पड़ा। मैं सुबह होते ही यहाँ से चली जाऊँगी। “

“ ठीक है। “ 

“ वैसे तुमने अपने बारे में कुछ नहीं बताया ? “

“ मेरा नाम दक्ष शर्मा है और जैसा कि मैंने बताया। मैं एक रिपोर्टर हूँ। “

“ और तुम अकेले रहते हो ? “

“ हाँ। “ 

               - शेष अगले भाग में

रहस्यमयी प्रतिमा ( भाग - 3 ) - दो घटनाएँ

 “ कल शाम 7 बजे ऑफिस से निकालकर मैंने पार्किंग प्लेस से अपनी बाईक उठाई और अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट ‘ नीलम रेस्टोरेंट ‘ की ओर रुख किया, जो ऑफि...