पेज

शनिवार, 24 अगस्त 2024

मंजिल की ओर

 राही एक है,

राहें अनेक। 

सही है कौनसी, 

कौनसी है गलत! 

नहीं है कोई बताने वाला, 

न सुझाने वाला। 


चलना तो है ही

नियति राही की। 

चलता है, 

गिरता है,

उठता है, 

संभलता है, 

फिर चलता है। 


राही है वो, 

पानी है मंजिल उसे, 

मिलेगी जो 

सही राह पर चलने से। 


उठ जाते है कदम कभी, 

उस राह की ओर, 

है जो गलत, 

बिल्कुल गलत। 

होता है भान, 

गलती का अपनी, 

कर लेता है पग पीछे

तत्क्षण यूँ , 

मानो, 

पड़ गया हो

किसी दहकते अंगार पर। 


और, 

लौट पड़ता है फिर, 

उसी राह पर, 

जो है सही

और ले जाती है उसे

मंजिल की ओर। 


- विजय कुमार बोहरा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें