" साकेत ! मुझे वो लडका बहुत अजीब लगा। " - काॅलेज में दिव्या साकेत को बता रही थी - " वह नियति को स्वीकार करना ही नहीं चाहता। उसने यह भी कहा कि वह रहीम के पिताजी की दया पर भी अधिक समय तक नहीं रहना चाहता।...तुम्हीं बताओ साकेत, ऐसे लडको को क्या करना चाहिए ? "
" दिव्या! उसे किसी ऐसी जगह चले जाना चाहिये, जहाँ उसे कोई न जानता हो। "
" सही कहा। पर अपने जन्म स्थान को छोडकर जाना बहुत मुश्किल होता है। "
" दिव्या! आज छूआछूत की समस्या काफी हद तक कम हो चुकी है, फिर भी...."
" जाने दो साकेत! बाई दी वे , तुम तो आजकल बहुत कम काॅलेज आते हो। कोई परेशानी तो नहीं...."
" नहीं। बस यूँ ही। "
" दिव्या! " - रवि ने आकर कहा - " तुम्हारी मदद चाहिये । "
" कैसी मदद ? " - दिव्या ने पूछा।
" एक लडका है, बिल्कुल आवारा और बिगडा हुआ। "
" तो ? "
" उसे सुधारना है , एक अच्छा इंसान बनाना है। "
" क्या ? " - दिव्या बहुत ज्यादा चकित हुई - " पूरी बात बताओ। "
रवि ने बताया - " एक बहुत बडे व्यवसायी हैं - ' पंकज जडेजा। ' इनका एक बेटा है - ' अमर। '
अमर वैसे बहुत अच्छा लडका है। बेवजह किसी को परेशान नहीं करता , किसी से लडाई - झगड़ा नहीं करता। "
" अच्छा! " - दिव्या बोली - " फिर समस्या क्या है ? "
" समस्या है, उसने अचानक से नशा करना शुरू कर दिया है। आवारा लड़को की तरह देर रात तक बाहर घूमना, कैसीनो में जाकर सट्टेबाजी करना - ये सब उसने अचानक शुरू कर दिया है। "
" अचानक ? " दिव्या और साकेत दोनों एक साथ चौंके।
" हाँ अचानक। एक साल पहले तक अमर सिगरेट को छूता तक न था, कैसीनो का नाम भी उसने कभी सुना नहीं था और अचानक से उसने ये सब शुरू कर दिया। "
" बेवजह ? " - साकेत ने पूछा।
" हाँ साकेत! बेवजह। "
" हो ही नहीं सकता। " - दिव्या बोली - " इस दुनिया में बेवजह कुछ नहीं होता। हर चीज़ के पीछे कोई न कोई वजह जरूर होती है। "
" हो सकता है! " - रवि ने कहा - " अगर कोई वजह है तो तुम उसका पता लगाकर अमर की बुरी आदतें छुडवा दो। "
" असंभव है रवि! असंभव है।" - दिव्या ने कहा।
" हो सकता है यह किसी और के लिये असंभव हो , लेकिन तुम्हारे लिये दिव्या! " - रवि ने कहा - " तुम्हारे लिये तो सब कुछ संभव है। "
" रवि! समझने की कोशिश करो। " - दिव्या बोली - " नशेबाजी एक ऐसा वन वे स्ट्रीट ( इकतरफा रास्ता ) है, जिसमें प्रवेश तो आसानी से किया जा सकता है, लेकिन इससे निकलना बहुत - बहुत मुश्किल होता है। "
" दिव्या! अगर तुम अमर को जानती होती तो ऐसा कभी नहीं कहती। अमर एक बहुत अच्छा लडका है। वो तो बस हालातों ने उसकी ऐसी हालत कर दी। " - रवि ने कहा - " मिस्टर पंकज जडेजा का इकलौता बेटा है अमर! बहुत फक्र था उनको अपने बेटे पर। लेकिन जब से अमर बिगड गया है, मिस्टर जडेजा का स्वास्थ्य भी बिगडता ही जा रहा है। "
सुनते - सुनते दिव्या की आंखें हल्की - सी नम हो आयी। यही तो उसकी सबसे बडी कमजोरी थी। किसी के भी दुःख को देख - सुनकर वह बहुत जल्दी इमोशनल हो जाती थी, लेकिन कभी-कभी भावनाओं को मारना पडता है।
" मैं समझ सकती हूँ। पर फिर भी मेरा जवाब वही है रवि! यह असंभव है। "
" तुम कोशिश तो कर ही सकती हो दिव्या! अपने पुराने बेटे को पाने के लिये मिस्टर जडेजा अपना सब कुछ तुम्हें देने के लिये तैयार है। " - रवि ने अंतिम प्रयास किया - " तुम जितने रुपये चाहो, तुम्हें मिल जायेंगे। तुम अपना हर सपना पूरा कर सकोगी। "
" नहीं मैं ऐसे किसी काम को हाथ में नहीं ले सकती, जिसकी सफलता संदिग्ध हो। न तो मुझे पैसों का लालच है और न ही मेरा कोई सपना...." - बोलते - बोलते दिव्या अचानक रुक गयी। उसे विकास याद आ गया।
दिव्या ने सोचा - " अगर विकास को ढेर सारे रुपये मिल जाये और उसे जयपुर से कहीं दूर पढने, विदेश भेज दिया जाय तो उसकी तो लाइफ बन जायेगी , इधर मिस्टर पंकज जडेजा भी खुश होंगे और उधर अमर सुधर गया तो वह भी जीवित नर्क से बाहर आ जायेगा। सिर्फ एक एक्शन से तीन - तीन जिन्दगियां बन जायेगी । "
" क्या हुआ दिव्या! किस सोच में पड गयी ? " - रवि ने पूछा।
" मैं अमर की मदद करुंगी। मैं उसे सही रास्ते पर ले आऊंगी। " - दिव्या ने अपनी मुट्ठियाँ भींचते हुए भरपूर दृढता से कहा।
" दिव्या! ये तुम क्या कह रही हो ? " - साकेत बोला - " यह कैसे करोगी तुम ? "
" साकेत ! " - दिव्या हल्के - से मुसकराते हुए बोली - " दिव्या ने जो चाहा है वो हमेशा हुआ है और अब मैं चाहती हूँ कि अमर सुधर जाये। "
साकेत ने देखा , दिव्या महानायिका की तरह दिख रही थी और ऐसा हमेशा उस समय होता था, जब दिव्या का अन्तर्मन आत्मविश्वास से भरा होता था।
हाँ दिव्या एक महानायिका ही थी।
□ □ □
" तो तुम हो दिव्या शर्मा। " - पंकज जडेजा ने अपने आलीशान बंगले में दिव्या का स्वागत करते हुए कहा - " सुना है तुम्हारे लिए कोई काम मुश्किल नहीं है। "
" गलत सुना है। " - दिव्या बैठते हुए बोली - " मुश्किल है , पर असंभव नहीं। "
" पर जिस काम के लिये तुम्हें यहाँ बुलाया गया है , वह लगभग असंभव ही है। "
" तभी तो मुझे आना पडा। " - मुसकराते हुए दिव्या बोली।
" यह कौन है ? " - मिस्टर जडेजा ने साकेत की ओर देखते हुए पूछा।
रवि ने बताया - " यह साकेत है। हमारे साथ ही है काॅलेज में। "
" तुम अमर के बारे में कुछ जानना चाहोगी ? " - मिस्टर जडेजा ने पूछा।
" अमर अभी कहाँ होगा ? "
" पता नहीं। " - मिस्टर जडेजा ने बताया - " सुबह घर से निकलता है और देर रात तक आता है। "
" अच्छा ! "
" वैसे रात को करीब 8 बजे के बाद वह ' राॅयल कैसीनो ' जाता है। " - रवि ने बताया।
साकेत ने कहा - " दिव्या! तुम्हें अमर के अतीत के बारे में जान नहीं लेना चाहिए ? "
" जब मैं अमर से मिलूंगी,तब उसी से पूछ लूंगी। "
" वो कभी नहीं बतायेगा। " - मिस्टर जडेजा और रवि एक साथ बोले।
" बतायेगा। " - साकेत बोला - " दिव्या को वो सब कुछ बतायेगा। "
" कैसे ? "
" पता नहीं, पर बतायेगा जरुर। " - दिव्या ने कहा - " अच्छा अंकल! अब हमें चलना चाहिये। "
" ओके। "
□ □ □
" जिन्दा है लाशें मुर्दा जमीं है,
जीने के काबिल दुनिया नहीं है,
दुनिया को ठोकर क्यों ना लगा दूं
खुद अपनी हस्ती क्यों ना मिटा दूँ।"
" मतलबी है लोग यहाँ पर,
मतलबी जमाना..."
- किशोर कुमार का एक दर्दभरा अफसाना अंधेरी रात के सन्नाटे के तोडते हुए अपना साम्राज्य फैलाने को आतुर था। लडखडाते कदम, मंजिल की परवाह किये बगैर जिधर को नसों में समाया हुआ नशा ले जाये, उधर ही चले जा रहे थे।
गिरते - पडते किसी तरह वह साया एक घर में दाखिल हुआ।
" आ गये ? " - घर के दरवाजे पर ही खडे अपने जवान बेटे के इंतज़ार में रातों की नींद को नकारते चिंतातुर मिस्टर पंकज जडेजा ने पूछा।
अमर कुछ भी बोलने की हालत में न था। किसी तरह दो- चार कदम बढाकर उसने अपने बेडरूम में प्रवेश किया और खुद को बिस्तर के हवाले कर दिया।
अगले दिन ब्रेकफास्ट के समय अमर, पिताजी को समझाने की कोशिश कर रहा था - " पिताजी! आप दिनभर अपनी व्यावसायिक समस्याओं से जूझते रहते है और रात को मेरे इंतज़ार में दो - दो बजे तक जागते है। इस तरह से तो आप बीमार पड जायेंगे, आपको ऐसा नहीं करना चाहिये। "
" अच्छा ? " - मिस्टर जडेजा ने हल्के से मुसकराते हुए कहा - " और तुम जो सिगरेट - शराब पीते हो, उससे तुम बीमार नहीं पडोगे ? "
" मेरे बीमार होने से कोई फर्क नहीं पडता। " - अमर ने उपेक्षा से कहा - " वैसे भी, ' मैं जिन्दा हूँ ' , यही बडी बात है। "
" ऐसी जिन्दगी से क्या फायदा ? " - चिल्लाते हुए मिस्टर जडेजा खडे हो गये, लेकिन अगले ही पल खुद को संयमित करते हुए बोले - " बेटा! क्यों अपनी जिन्दगी बर्बाद कर रहे हो ? "
" बर्बाद हम क्या करते खुद को,
जब अपनों ने ही कसर न छोडी। " - अमर भी उठ खडा हुआ।
पिता - पुत्र में हर रोज इसी तरह बहस होती रहती थी।
इसके बाद मिस्टर जडेजा आॅफिस चले जाते और अमर अपनी ' फरारी ' को जयपुर की सडकों पर दौडाता फिरता।
- क्रमश :
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