मन में उठने वाले भावों को लिपिबद्ध करने का एक लघु प्रयास

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

रहस्यमयी प्रतिमा ( भाग - 1 ) - श्रद्धा और दक्ष

 


रात का समय। 

मूसलाधार बारिश! 

ऐसे समय में, जबकि ज्यादातर लोग, अपने - अपने घरों में दुबके हुए थे, एक लड़की… एक अकेली लड़की शहर की सड़कों पर बदहवास सी दौड़ी चली जा रही थी। 

उसने पीले रंग की प्रिंटेड साड़ी पहनी हुई थी, जैसा कि अक्सर गाँव की लड़कियाँ पहना करती है। 

उसके हाथ में पुराने से कपड़े की एक छोटी सी गठरी भी थी, जिसमें शायद उसकी जरूरत की कुछ वस्तुयें थी। 

बारिश तो बहुत दूर की बात है, मूसलाधार बारिश तक की उसे कोई परवाह नहीं थी। 

किसी इमारत की छत के नीचे रुककर वह बारिश में खुद को भीगने से बचा सकती थी, लेकिन वह ऐसा कुछ भी करने के मूड में नही थी। 

पर भागती भी तो आखिर कहाँ तक! 

आखिरकार तो उसे कहीं न कहीं रुकना ही था, कहीं तो शरण लेनी ही थी! 

अंततः थककर उसने शहर के अंदरूनी इलाके की किसी कॉलोनी के एक घर का दरवाजा खटखटाया। 

“ ठक्… ठक्! ठक्.. ठक्! “ - हाथ से वह दरवाजा लगातार खटखटाये जा रही थी। 

कुछ ही देर में दरवाजा खुला। 

और जो उसने अपने सामने देखा, वह उसके होंश उड़ा देने के लिए काफी था। 

दरवाजा खुलते ही उसने एक रिवॉल्वर देखी, जिसकी नाल का रुख उसी की ओर था। 

मारे भय और हैरत के उसकी आँखें अपने स्वाभाविक आकार से कुछ ज्यादा ही बड़ी हो चली थी। 

यह वो किस घर का दरवाजा खटखटा बैठी थी! 

“ कौन हो तुम ? “ - रिवॉल्वर थामे शख्स ने कठोर स्वर में पूछा। 

दरवाजा खुलने के बाद से ही वह सिर्फ रिवॉल्वर और अपनी मौत के बारे में ही सोच रही थी। 

उस शख्स की तरफ उसका ध्यान ही नहीं गया, जिसके हाथ में वह रिवॉल्वर थी। 

अब जबकि उस शख्स ने सख्ती से एक सवाल पूछा, तो उसका ध्यान उस शख्स की तरफ गया। 

वह करीब 26 - 27 साल का एक नौजवान लड़का था, जो देखने में काफी आकर्षक लग रहा था। 

अपने चेहरे पर सख्ती के भाव लाने और उसे पर्याप्त कठोर बनाने का भरसक प्रयास करने के बाद भी उसके चेहरे की सौम्यता बरकरार थी। 

“ जल्दी बोलो। कौन हो तुम और यहाँ क्यों आई हो ? “ - लड़की को कोई जवाब देते न देखकर उसने फिर से पूछा। 

खुद को संभालने की कोशिश करते हुए वह बोली - “ य.. यह रिवॉल्वर तो हटाओ पहले सामने से! “

उस शख्स ने रिवॉल्वर नीचे की और बोला - “ अब बताओ। “

“ अंदर तो आ जाऊँ पहले। बाहर तेज बारिश है, भीग रही हूँ और सर्दी भी लग रही है। “ - बोलते हुए उसने एक कदम आगे बढ़ाया। 

उस शख्स ने रिवॉल्वर फिर से उस पर तानी और बोला - “ फालतू बकवास नहीं। जल्दी से बताओ, कौन हो और रात के इस वक़्त यहाँ क्यों आई हो ? “

“ अरे! “ - अब उसे गुस्सा आ गया - “ ये क्या तुम बात - बात पर रिवॉल्वर निकाल लेते हो! एक बेसहारा और दुखियारी अबला आधी रात के समय इस मूसलाधार बारिश में तुम्हारे घर के बाहर खड़ी भीग रही है। तुमको जरा भी दया नहीं आती क्या ? “

अचानक बदले लड़की के तेवर देखकर वह चकित रह गया। 

एक क्षण विचार करने के बाद उसे लड़की की बात सही लगी और उसने अपने कदम पीछे करके उसे भीतर आने देने के लिए दरवाजे से हट गया, लेकिन रिवॉल्वर की नाल का रुख उसने अभी भी लड़की के सिर की ओर ही कर रखा था। 

लड़की सजग निगाहों से घर का मुआयना करते हुए धीरे धीरे चलते हुए भीतर प्रविष्ट हुई। 

बारिश में बुरी तरह से भीग जाने के कारण वह ठंड से काँप रही थी। 

“ सामने गेस्ट रूम है। तुम वहाँ जाकर वस्त्र बदल सकती हो। “ - वह शख्स बोला। 

“ लेकिन मेरी तो पूरी गठरी ही भीग गई है। “ - वह अपने हाथ में थमी कपड़े की बनी पोटली की ओर संकेत करते हुए बोली। 

“ चिन्ता नहीं करो। वहाँ तुम्हें तुम्हारे लायक कुछ तो मिल ही जायेगा। “ 

“ ठीक है। “ - ठंड से काँपते हुए वह बोली और भीतर गेस्ट रूम में चली गई। 

गेस्ट रूम काफी बड़ा था। वहाँ लोहे की एक बड़ी सी अलमारी थी, जिसे खोलकर देखने पर उसे कई सारे कपड़े मिले। 

कुछ देर बाद वह बाहर आई तो उसने एक रेड कलर का टी शर्ट और जीन्स धारण की हुई थी।

“ अब बोलो कौन हो तुम ? “

“ अरे! तुम तो वहीं के वहीं अटके हुए हो। “ - अपनी ओर रुख की हुई रिवॉल्वर को देखते हुए वह बोली - “ मुझे तो बिल्कुल भी नहीं लगता कि तुम इसे चलाना भी जानते हो। “

“ जल्दी बताओ कौन हो तुम ? “

“ ठीक है। बैठ तो जाऊँ पहले। “ - वहीं रखे एक सोफा चेयर पर बैठते हुए वह बोली - “ मेरा नाम श्रद्धा है और मैं पास ही के गाँव सुजानपुर की रहने वाली हूँ। यह बहुत छोटा सा गाँव है। तुमने तो शायद कभी ये नाम भी नहीं सुना होगा। “

“ आगे बोलो। “ 

“ वैसे तो सुजानपुर बहुत ही अच्छी जगह है। वहाँ के लोग भी बहुत अच्छे है। लेकिन, मेरे पिता के बड़े भाई यानी कि मेरे चाचाजी कोई बहुत अच्छे इंसान नहीं है। मेरे बचपन में ही मेरे माता पिता के निधन के बाद से मेरे पालन पोषण की जिम्मेदारी मेरे चाचा और चाची ने ले ली थी। चाचा का कोप मुझ पर जब कभी बरसता ही रहता था, लेकिन मेरी चाची सुलोचना एक अच्छी महिला है। वे मेरा बहुत ध्यान रखती थी। चाचा की दुत्कार को मै चाची के प्यार के सहारे झेल लेती थी। सब कुछ ठीक ही चल रहा था। पर कल बात कुछ ज्यादा ही बढ़ गई, जिसके बारे में मुझे तो भनक तक नहीं पड़ी। वो तो भला हो मेरी हितैषी चाची का, जिन्होंने आज सुबह चाचा के काम पर जाते ही मुझे सब कुछ बताकर घर से भागने की सलाह दे डाली। “

“ क्या हुआ था ? “

“ गाँव का एक पैसों वाला बिगडेल शराबी प्रौढ़ व्यक्ति दातादीन मुझसे शादी करना चाहता था। बहुत समय से पीछे भी पड़ा था। पर वो मेरे से दोगुनी से भी ज्यादा उम्र का आदमी है। उससे भला क्यों मेरी शादी होती। लेकिन उसने कोई तिकडम लगाकर चाचा को इस शादी के लिए राजी कर लिया। “

“ और वे मान गये ? “

“ वैसे तो नहीं मानते। पर उस दुष्ट ने लालच ही ऐसा दिया कि मान गए। “ - श्रद्धा बता रही थी - “ वह न केवल बिना दहेज के मुझसे शादी करने के लिए तैयार हो गया, बल्कि ऊपर से दस लाख रुपये चाचा को देने की पेशकश रख दी। “ 

“ और इसीलिए तुम्हारे चाचा उससे तुम्हारी शादी कराने के लिए मान गए ? “ 

“ हाँ। लेकिन चाची को पैसों से ज्यादा मेरी जिंदगी की परवाह थी। अपनी उम्र से दोगुनी उम्र के आदमी से शादी करना आत्महत्या करने की तरह है, ऐसा मानने वाली चाची ने मुझे घर से भागने की सलाह दे डाली। “

“ और तुम घर से भाग आई ? “

“ हाँ। लेकिन यह इतना आसान नहीं था। जब से होंश संभाला है, गाँव तो बहुत दूर की बात है, अपने घर की दो गलियों से आगे कभी नहीं गई और यहाँ तो ये भी नहीं पता था कि गाँव छोड़कर जाना कहाँ है। “

“ किसी रिश्तेदार का नाम नहीं सुझाया तुम्हारी चाची ने, जहाँ जाकर तुम रह सकती थी ? “ 

“ फायदा क्या होता ? मेरा दुष्ट चाचा मुझे ढूँढ न लेता ! चाची तो किसी ऐसी जगह मुझे भेजना चाहती थी, जहाँ कि वो खुद भी चाहे तो मुझे ढूँढ न सके। “

“ ओह। “ - वह शख्स बोला - “ फिर ? “

“ फिर क्या.. “ - विस्मित होते हुए श्रद्धा बोली - “ फिर मैं यहाँ शहर में आ गई। “

“ गुड।… अच्छी कहानी है। “

“ क्या ? “ 

“ कहानी, जो तुमने सुनाई, बहुत अच्छी है। “ 

“ य… ये कोई कहानी नहीं, मेरी आपबीती है। “

“ जो भी हो, है अच्छी। “ - व्यंग्यपूर्ण तरीके से मुस्कुराते हुए वह शख्स बोला - “ तुम चाहो तो इसे मैं अखबार में छाप सकता हूँ। “

“ क… क्या ? “ - खौफ़जदा होते हुए वह बोली - “ तुम ऐसा कर सकते हो ?... कैसे कर सकते हो ?... तुम्हारी पहचान है अखबार के कार्यालय में ? “

“ पहचान ? “ - वह उसी तरह व्यंग्यात्मक ढंग से मुस्कुराते हुए बोला - “ मैं खुद एक जर्नलिस्ट हूँ। “

“ क्या ? क्या हो ? “ - श्रद्धा उलझनपूर्ण स्वर में बोली। 

“ जर्नलिस्ट। रिपोर्टर। पत्रकार। “

“ अरे, नहीं। मैं तुमसे विनती करती हूँ। प्लीज ये सब अखबार में न छाप देना। क्योंकि, चाचा मेरी तलाश में कभी भी यहाँ पहुँच सकते हैं। “

“ ठीक है। तुम चिन्ता नहीं करो। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा। पर, एक बात बताओ। “

“ पूछो। “

“ ये जो कुछ भी तुमने बताया, सब सच है ? “

“ हाँ। सच है। भला मैं झूठ क्यों बोलूँगी ! “

“ ठीक है। तो तुम अब आगे क्या करोगी ? “

“ आगे ? “

“ हाँ। कहाँ जाओगी ?... क्या करोगी ? सोचा है कुछ इस बारे में ? “

“ नहीं। मुझे नहीं पता। पर तुम चिन्ता मत करो। वो तो अचानक बारिश आ जाने की वजह से मुझे यहाँ आना पड़ा। मैं सुबह होते ही यहाँ से चली जाऊँगी। “

“ ठीक है। “ 

“ वैसे तुमने अपने बारे में कुछ नहीं बताया ? “

“ मेरा नाम दक्ष शर्मा है और जैसा कि मैंने बताया। मैं एक रिपोर्टर हूँ। “

“ और तुम अकेले रहते हो ? “

“ हाँ। “ 

               - शेष अगले भाग में

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें