मर मरकर जी रहा हूँ
जी जीकर मर रहा हूँ
ए जिन्दगी तू ही बता दे
ये मैं क्या कर रहा हूँ।
तबाह जिन्दगी को ढो रहा हूँ
औरों की खातिर मैं खुद को खो रहा हूँ।
कर्म मरणासन्न है
भाग्य बैठा बिछाए आसन है
न पग बढ़ा पा रहा हूँ
न पीछे हटा पा रहा हूँ
बस कल जहाँ था
आज वहीं खड़ा पछता रहा हूँ।
कर्म तो कभी किये नहीं मैंने
जाने किसके कर्मों की सजा पा रहा हूँ।
फैसला अपनी जिन्दगी का ले नहीं पाया खुद कभी
बस इसीलिए औरों के लिए फैसलों पर
जिन्दगी जिए जा रहा हूँ।
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