होंश संभाला जब से ,
सुना तुमने बस इतना ही ,
कि ,
चलना है।
और तुम…
न सपनो को समझा ,
न मंजिल को जाना ,
बस चल दिए।
आया अगर राह में दोराहा ,
पूछा किसी अजनबी से ,
और ,
बता दिया उसने अपने हिसाब से ,
रास्ता कोई एक।
और तुम…
न सपनों को समझा ,
न मंजिल को जाना ,
बस चल दिए।
कहाँ पहुँचे हो आज तुम ?
जानते हो ?
नहीं ,
कैसे जानोगे तुम ?
तुम तो एक राही हो ,
चलना तुम्हारा काम है।
इसीलिए ,
जो राह दिखी उसी पर ,
बस चल दिए।
पर ,
राही क्या सिर्फ राही होता है ?
क्या वो इंसान नहीं होता ?
या उसके सपने नहीं होते ?
तब तो सुख दुःख भी नहीं होता होगा ?
नहीं ,
तुम्हारे भी सपने थे ,
तुम्हारी भी मंजिल थी।
पर ,
रुके नहीं तुम एक पल भी ,
जिसने जो राह दिखाई ,
उसी पर ,
बस चल दिए।
बहुत दूर निकल आए हो घर से ,
घर तो लौट नहीं सकते।
और ,
जाना कहाँ है , ये भी नहीं जानते।
तो ,
क्या करोगे अब ?
पूछोगे किसी और से ,
एक नई राह का पता ?
न सपनों को समझोगे ,
न मंजिल को जानोगे ,
बस चल दोगे।
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (24-01-2022 ) को 'वरना सारे तर्क और सारे फ़लसफ़े धरे रह जाएँगे' (चर्चा अंक 4320 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंबहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए है आपने
जवाब देंहटाएंनिशब्द हूं आपकी रचना पढ़ते! 🙏
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद।
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