ज़रा नियामत और बरसा दे

अकेलापन! तन्हाई!
ऐ खुदा!
कैसी नियामत ये तूने बरसायी। 
घेरे हैं हर तरफ से,
अजनबी चेहरे। 
देते हैं जो हर वक़्त, 
मुझ पे पहरे। 
लगते कभी गैर हैं,
कभी अपने। 
जैसे हो कोई,
भूले-बिसरे सपने। 
इन्हीं में कोई एक चेहरा,
नहीं लगता गैर जरा भी। 
लगता है अपना,
बिल्कुल अपना। 
हो जैसे,
बचपन का देखा कोई सपना।
सामने आ गया अचानक ऐसे। 
खुदा की नियामत,
नूर बनकर बरसी हो जैसे। 
चेहरा अलग है,
पर रूह में उसकी,
है अक्स मेरा ही। 
वो मुझमे है,
या मैं उसमे।  
 या है दोनों एक ही,
पहचान करा दे,
ऐ खुदा!
जरा नियामत और बरसा दे। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. खुदा की नेमत तो सब पर बरसती है ...
    इस अकेलेपन और तन्हाई से ख़ुद ही निकलना होता है ... अच्छी रचना ...

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