मन में उठने वाले भावों को लिपिबद्ध करने का एक लघु प्रयास

शनिवार, 7 दिसंबर 2024

रहस्यमयी प्रतिमा Ch - 28 महल में पुरातात्विक खोज

 लगभग आधे घंटे की मेहनत के बाद महल के प्रवेश द्वार को रोककर पड़े हुए सभी पत्थरों को पुरातत्वविद जतिन जैन और उसके सहायक अमोल कुलकर्णी ने हटाकर भीतर जाने के लिए रास्ता बना दिया।

“चलो एक काम तो हुआ।” - जतिन बोला - “अब भीतर चलकर देखते हैं कि यहां कोई काम की चीज मिलती भी है या नहीं।”

“संभलकर सर!” - महल की छत की तरफ देखते हुए कुलकर्णी बोला।

“हाँ।”

बहुत ही सावधानी से और धीमी गति से चलते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। महल में प्रवेश करने के बाद उन्होंने खुद को एक बड़े से हॉल में पाया।

हॉल के ऊपर की छत टूटी हुई थी और हॉल में सब तरफ बड़े बड़े पत्थर बिखरे पड़े थे, जो कि छत के टूटने से वहां गिरे थे।

उन पत्थरों के ऊपर से सावधानी से निकलते हुए वे आगे बढ़े तो हॉल के चारों तरफ उनको कुछ कक्ष दिखाई दिए, जो काफी बड़े थे और उनमें से अधिकतर के दरवाजे टूटे हुए थे। वहां पर चार कमरे थे। उन सबमें घूमकर देखने पर उनको पत्थर और मिट्टी की कुछ टूटी फूटी प्रतिमाएं दिखाई दी। 

“यहां पर तो सभी टूटी हुई मूर्तियां हैं। इनको ले जाने से भला क्या लाभ होगा और बेकार की मेहनत करनी पड़ेगी।” - अमोल बोला।

“हाँ। इन प्रतिमाओं को ले चलने का कोई लाभ नहीं है।” - सहमति जताते हुए जतिन बोला - “अब बस एक कक्ष और बचा है। देखते हैं, शायद उसमें कुछ हो।”

“मुझे तो नहीं लगता ऐसा कुछ भी। हमारा इतना रिस्क लेकर इस महल में आना भी व्यर्थ ही गया।”

धीमी गति और बेहद सावधानी से चलते हुए वे अंतिम और चौथे कक्ष की तरफ बढ़े।

संयोग से उस कक्ष का दरवाजा अभी तक सुरक्षित अवस्था में था। वह लकड़ी का ही बना हुआ था। उस कक्ष के पास जाकर जतिन ने उसे धीमे से धकेलकर खोलने का प्रयास किया। लेकिन, वह तो हिला तक नहीं। यह देख जतिन ने दरवाजे को थोड़ा जोर से धक्का दिया, लेकिन फिर भी वह नहीं हिला।

“यह तो जाम हो गया लगता है।” - अमोल बोला - “मैं कोशिश करके देखता हूँ।”

कुलकर्णी ने भी कोशिश करके देखा, लेकिन वह दरवाजा तो टस से मस नहीं हुआ।

“मेरे विचार से हमें एक साथ जोर से इसे धक्का मारना चाहिए।” - जैन बोला।

“ठीक है।”

जतिन और अमोल ने एक साथ दरवाजे को धक्का दिया। लेकिन परिणाम वही निकला, जो अभी तक निकलते आ रहा था।

“कई सालों तक बंद पड़ा रहने के कारण यह अटक गया लगता है।” - जतिन बोला।

“सही है सर! पर अब क्या करें ? कैसे खोलें इसे ?”

जतिन ने हॉल में इधर उधर निगाह डाली। हॉल में एक तरफ लकड़ी का एक स्तंभ रखा हुआ दिखाई दिया।

“इससे शायद काम बन जाए।” - जतिन ने उस स्तंभ की ओर संकेत करते हुए कहा।

“ठीक कहा सर!”

लकड़ी के उस स्तंभ को उठाकर जैन और कुलकर्णी ने तेजी से दौड़ते हुए कक्ष के दरवाजे पर आघात किया। एक आघात से तो कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। लेकिन, यही प्रक्रिया उन्होंने छह सात बार दोहराई। तब दरवाजा हल्का सा हिला। फिर उन्होंने लकड़ी के उस स्तंभ को नीचे रख दिया और फिर से अपने हाथों से ही दरवाजे को धक्का दिया। अब दरवाजा आसानी से खुल गया। दरवाजे के खुलते ही छत से कुछ पत्थर नीचे गिरे।

“अच्छा हुआ दरवाजा खुलते ही हम भीतर नहीं गए।” - कक्ष का दरवाजा खोलने में की गई मेहनत से थक कर हांफते हुए कुलकर्णी बोला - “नहीं तो इन पत्थरों से चोट खा बैठते।”

“सही कहा।” - जैन बोला - “थोड़ी देर और यहीं रुकते है।”

कुछ देर बाद जब उनको कक्ष की स्थिति सामान्य लगी, तब उन्होंने भीतर जाने का मन बनाया।

इस कक्ष में भी उन्हें वही सब देखने को मिला, जो बाकी के कक्ष में उन्होंने देखा था। पत्थर और मिट्टी की खंडित प्रतिमाएं ! लेकिन एक प्रतिमा पूरी तरह सुरक्षित थी।

“इसे देखो कुलकर्णी!” है आश्चर्य में डूबे जतिन ने कहा - “यह प्रतिमा कितनी विशाल है! और पूरी तरह से सुरक्षित भी!”

“हाँ सर! लेकिन, यह तो मिट्टी की बनी हुई लगती है।”

“सिर्फ लगती ही नहीं, यह सच में मिट्टी की ही बनी हुई है। इस पर पेंट किया हुआ है, जो सालों पुराना लग रहा है।”

उनके सामने भगवान नृसिंह की प्रतिमा थी, जो हिरण्यकश्य का पेट अपने तीक्ष्ण नाखूनों से चीर रही थी। 

“ये तो एक साथ दो प्रतिमाएं है और दोनों ही सही सलामत है।” - अमोल बोला।

“हाँ।” - कुछ सोचते हुए जतिन ने कहा - “कितनी अजीब बात है। इस महल में मौजूद पत्थर तक से बनी प्रतिमाएं खंडित अवस्था में है। लेकिन, मिट्टी की बनी भगवान नृसिंह और हिरण्यकश्य की ये प्रतिमा बिल्कुल सुरक्षित है। इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी इन पर एक खरोंच तक नहीं आई है!”

“सच में!”


•••••


पुरातत्वविद जतिन जैन , पुरातत्व विभाग के महानिदेशक समीर चौबीसा को बता रहा था - “इसके बाद हम लोग बेहद सावधानी से उस प्रतिमा को उठाकर पहले उस कक्ष से और फिर महल से बाहर लेकर आए।

महल से कुछ दूर एक पेड़ के नीचे बैठकर हमारे लौटने का इंतजार कर रहे जयमल ने जब हमें प्रतिमा के साथ बाहर आते देखा, तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह तो सोचकर बैठा था कि पूरा का पूरा महल हमारे भीतर जाते ही गिर पड़ेगा और वहीं हमारी समाधि बन जाएगी।

बाहर आकर मैं जयमल के साथ वहीं रुक गया और कुलकर्णी को मैंने बोलेरो सहित ड्राईवर वहां लाने के लिए भेजा, ताकि उस प्रतिमा को गाड़ी में लादकर संग्रहालय तक लाया जा सके।

बाद में, बोलेरो के कैरियर पर प्रतिमा को चढ़ाकर हम लोग जयमल के साथ ही पंचायत कार्यालय पहुंचे। वहां सरपंच साहब को सारी बात बताकर प्रतिमा को यहां संग्रहालय में ले आए।”

समीर चौबीसा आश्चर्य चकित होकर जतिन की ओर ऐसे देख रहा था, जैसे वह कोई अजूबा हो।

“गजब के दुःसाहसी इंसान हो तुम!” - चौबीसा बोला - “आज के समय में भारत देश के अधिकांश हिस्सों में पुरातत्व विभाग ने अपनी पहुंच बना ली है। ऐसे स्थानों का तो मिलना भी बहुत मुश्किल है, जो पुरातत्व विभाग की पहुंच से दूर रह गए हो। ऐसे में भी तुम दुर्गम स्थलों पर जाकर दुर्लभ कलाकृतियों की तलाश में लगे हुए हो! यह तो वाकई काबिले तारीफ बात है।”

“शुक्रिया सर!”

“लेकिन, हमारा सवाल तो अब भी अपनी जगह कायम है। हिरण्यकश्य की प्रतिमा में से पत्थर का वह आदमी कैसे प्रकट हुआ ?” - महानिदेशक चौबीसा बोले - “हमारे पास ऐसी तकनीकें है, जिनकी सहायता से हम किसी भी वस्तु की आयु निकालने में सक्षम हैं। निश्चित रूप से मिट्टी की इस प्रतिमा की भी प्राचीनता का पता लगाकर तुमने यह तो जान लिया कि यह गुप्तकाल की है। लेकिन, यह प्रतिमा उस महल में कैसे पहुंची, जो राजपूत काल का है और उससे पहले यह प्रतिमा कहां रही होगी ?”

“यह प्रतिमा उस महल में कहां से आई, इसका पता लगाना तो मुश्किल कार्य है। लेकिन, हिरण्यकश्य की प्रतिमा में से पत्थर का वह आदमी कैसे प्रकट हुआ, इसका पता मैं लगाकर रहूंगा और इसके लिए मुझे एक बार फिर सेमलपुर के उस प्राचीन महल में जाना होगा।” - जतिन जैन दृढ़तापूर्वक बोला।


•••••

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें