मन में उठने वाले भावों को लिपिबद्ध करने का एक लघु प्रयास

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2024

रहस्यमयी प्रतिमा Ch - 27 महल की ओर प्रस्थान

 

“ हां , सर ! “ - जयमल बोला - “ और जैसा कि इन्होंने बताया, ये पुरानी वस्तुओं की तलाश में यहां आए हैं। “

“ हां , वो सब मैं समझता हूं। “ - सरपंच साहब लापरवाही से बोले - “ लेकिन, यहां इस छोटे से गांव में इन लोगों को भला क्या मिलेगा! “

“ मिलने को कहीं से कुछ भी मिल सकता है। “ - जतिन बोला - “ आप तो यहीं के हैं। कभी कहीं किसी पुरानी चीज के बारे में आपको पता चला हो तो आपको हमें जरूर बताना चाहिए।” 

काफी देर से चुप बैठा सचिव बोला - “इस गाँव में शिवजी का पुराना मंदिर जरूर है, जिसमें भगवान शंकर की एक पुरानी सी प्रतिमा स्थापित है।”

“ सचिवजी! ये आप क्या बोल रहे हो!” - सरपंच साहब थोड़ा गुस्से में बोले - “अब क्या हम शिवजी की मूर्ति को ही पुरातत्व की भेंट चढ़ा दें!”

“अरे,इसमें आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है।” - पुरातत्वविद जैन बात सम्हालते हुए बोला - “यह बात हम भी समझते हैं कि जन आस्था से जुड़ी प्रतिमा यदि पुरातत्व विभाग ले जाता है तो आम जनता विद्रोह पर उतर आती है। इसीलिए मंदिर वगैरह से हम कुछ नहीं ले जाते।”

सरपंच साहब का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ।

“फिर तो आपको निराश ही लौटना पड़ेगा।” - सचिव बोला।

सरपंच साहब कुछ सोचते हुए बोले - “वैसे, एक पुराना सा महल है तो सही यहां।”

“ महल!” - एकाएक ही जैन और कुलकर्णी चकित स्वर में बोले।

“ तालाब के पास वाला महल ?” - जयमल ने सरपंच साहब की ओर देखते हुए पूछा।

“ एक ही तो महल है पूरे गांव में।” - सरपंच साहब बोले।

“ पर, वह काफी जर्जर हालत में है।” - सचिव बोला।

“ जर्जर हालत में !” - कुलकर्णी चौंकते हुए बोला।

“हाँ।” - सरपंच साहब बोले - “है तो महल काफी पुराना और इसीलिए काफी जर्जर हालत में है। इतना ज्यादा जर्जर है कि कभी भी गिर सकता है।”

“तब तो रहने ही दीजिए।” - अमोल बोला - “सर! मैने तो पहले ही कहा था कि यहाँ अपने काम की कोई भी वस्तु मिलने की संभावना नहीं है। मेरे विचार से अब हमें चलना चाहिए।”

“इतनी जल्दी नही कुलकर्णी!” - “जैन बोला - “महल में अगर हमारे काम की कोई वस्तु मिलने की जरा भी उम्मीद है तो हमें एक बार महल में जाकर जरूर देखना चाहिए।”

“लेकिन, सर! आपने सुना नहीं, वह महल कभी भी गिर सकता है।”

“देखा जाएगा।” - कहते हुए जतिन सरपंच साहब से मुखातिब हुआ - “यह महल है किस तरफ ?”

“आप सच में जाना चाहते हैं महल में ?”

“ हाँ, बिल्कुल।”

“यह जानते हुए भी कि वह बहुत अधिक जर्जर हालत में है और किसी भी समय गिर सकता है ?”

“ आप बता सकते हैं कि वह महल किस तरफ है ?” - सरपंच साहब के सवाल को अनसुना करते हुए जैन ने पूछा।

“ आपने पक्का इरादा कर ही लिया है तो फिर जयमल आपको वहां तक ले जाएगा।” - सरपंच साहब बोले।

“ठीक है। फिर हम अनुमति चाहेंगे।” - बोलते हुए जतिन खड़ा हुआ।

कुछ ही देर बाद जतिन, अमोल और जयमल पुराने महल की ओर बढ़ रहे थे।

“ ये महल कितना पुराना होगा ?” - चलते - चलते जतिन जैन ने पूछा।

“ठीक से तो किसी को भी नहीं पता।” - जवाब देते हुए जयमल बोला - “लेकिन, एक अनुमान के अनुसार कम से कम 12वीं सदी का तो होगा ही।”

“इतना पुराना ?” - चौंकते हुए कुलकर्णी बोला - “सर! बात मान लीजिए। लौट चलिए। इतना पुराना है तो बिल्कुल ही टूटा फूटा होगा ये महल। कहीं ऐसा न हो कि हमारे महल के अंदर जाते ही वह टूटकर गिर पड़े और उसी में हमारी समाधि बन जाए।”

“बेकार की बातें मत करो अमोल!” - जैन इस बार कुछ गुस्से में बोला - “मेरी समझ में तो ये नहीं आ रहा है कि तुम इस पुरातत्व विभाग में आ कैसे गए! क्या तुमको इतना भी नहीं पता कि एक पुरातत्वविद का एक ही कर्तव्य होता है, पुरातात्विक महत्व की वस्तुओं को ढूंढना और उन्हें संरक्षित करने का प्रयास करना। इस कार्य में आनंद तो बहुत आता है। लेकिन, जोखिम भी बहुत होता है। बिना जोखिम उठाए एक पुरातत्वविद कभी भी अपने कार्य को सफलता पूर्वक अंजाम नहीं दे सकता।”

“मुझे पता है सर! लेकिन, यूं ही जान बूझकर ओखली में सिर देना अक्लमंदी तो बिल्कुल भी नहीं है।”

“तुमको देखकर बिल्कुल भी नहीं लगता कि तुम कोई पुरातत्वविद हो। तुम तो एक ऐसे सैलानी लगते हो, जो तफरीह के लिए आया हो।”

जल्द ही वे लोग महल तक पहुंच गए। यह गांव से थोड़ा दूर तालाब के किनारे स्थित था।

महल लाल पत्थरों से बना हुआ लग रहा था, जिसका अधिकांश हिस्सा अब काला पड़ चुका था। महल की दीवारों में जगह - जगह दरारें आ चुकी थी।

“तो ये है वो महल!” - महल को ध्यान से देखते हुए पुरातत्वविद जैन बोला।

“जी सर!” - जयमल ने कहा - “लेकिन, यहां कोई आता जाता नहीं है। इसका तो प्रवेश द्वार तक छत टूटने से गिर चुके पत्थरों से बंद हो चुका है।”

“इसका अर्थ यह हुआ कि भीतर जाने के लिए वे पत्थर हटाने पड़ेंगे।”

“ज़ाहिर सी बात है।”

“मजदूर मिल जाएंगे ना गांव में ?”

“मिल तो जायेंगे।” - रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुए जयमल बोला - “लेकिन, अगर आप ये पत्थर उनसे हटवाने की सोच रहे हैं तो भूल ही जाइए। कोई भी जान का रिस्क लेकर ये काम करने नहीं आएगा।”

“ओह, तब हम भीतर कैसे जायेंगे ?”

“हम नहीं, सिर्फ आप दोनों।” - अपने कदम पीछे हटाते हुए जयमल बोला।

“और हम दोनों नहीं, सिर्फ आप।” - कुलकर्णी बोला - “अपनी जान प्यारी है मुझे।”

“तब मैं तुम्हे सलाह देता हूं कि जितना जल्दी हो सके, अपने पद से इस्तीफा दे दो।” - कहते हुए जैन महल की ओर बढ़ा।

“अरे, सर!” - जैन के पीछे भागते हुए कुलकर्णी बोला - “आप तो बुरा मान गए। मैं अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटूंगा सर! फिर भले ही इस काम में मुझे अपनी शहादत ही क्यों न देनी पड़े।”

अमोल की बात सुनकर जतिन की हँसी छूट गई।

महल के आस पास कई सारे पेड़ थे और गांव से बाहर होने के कारण वह एरिया थोड़ा सा जंगल में आता था।

वहीं एक पेड़ के सहारे खड़े होकर जयमल उन लोगों को महल की ओर जाते देख रहा था।

महल के पास पहुंचकर जतिन और अमोल महल के प्रवेश द्वार से पत्थर उठाकर बाहर की ओर फेंकने लगे।

कुछ तो पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े थे, जिन्हें उठाकर बाहर फेंकना बच्चों का खेल था। लेकिन, कुछ पत्थर इतने बड़े और भारी थे कि उन्हें एक अकेला व्यक्ति तो उठा ही नहीं सकता था। ऐसे बड़े पत्थरों को जैन और कुलकर्णी दोनों ने मिलकर उठाया और बाहर लाकर एक तरफ रख दिया।




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