मन में उठने वाले भावों को लिपिबद्ध करने का एक लघु प्रयास

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

रहस्यमयी प्रतिमा Ch - 25 जतिन जैन सेमलपुर गाँव में

 

महानिदेशक समीर चोबिसा को इस तरह उत्तेजित और अति उत्साहित देखकर जतिन जैन आश्चर्य में पड़ गया। इसकी सीधी सी वजह ये थी कि भारत देश में पुरातत्व विभाग के मुखिया और सबसे बड़े अधिकारी होने के बावजूद वे अति उत्साहित हो रहे थे। मिट्टी की ऐसी कितनी ही प्रतिमाएँ पूरे भारत में अलग अलग स्थानों से प्राप्त होती आई है, इसीलिए इस अति उत्साह के पीछे ये वजह तो कतई नहीं हो सकती कि ये मिट्टी से बनी हुई है। हाँ, ये जरूर है कि मिट्टी की बहुत कम प्रतिमाएँ ही ऐसी होती है, जो अपने निर्माण के इतनी सदियों तक उपेक्षित अवस्था में रहने के बाद भी पूरी तरह से सुरक्षित बच सके और भगवान नृसिंह की ये प्रतिमा ऐसी ही थी। 

मिट्टी की बनी होने और सदियों तक किसी पुराने से महल में उपेक्षित अवस्था में पड़ी रहने के बावजूद ये प्रतिमा पूरी तरह से सुरक्षित थी! यह किसी चमत्कार से कम नहीं था। 

“ तुम किस सोच में पड़ गए जतिन ? अब बताओ भी कि तुम भगवान नृसिंह की इस प्रतिमा तक पहुँचे कैसे ? “ - महानिदेशक समीर के इस प्रश्न से जतिन जैन की तंद्रा टूटी और वह विचारों की दुनिया से वास्तविकता के धरातल पर आया। 

“ एक पुरातत्वविद् होने के कारण मैं हमेशा नई नई जगहों की खाक छानता फिरता हूँ। महज इस उम्मीद में कि कहीं कोई पुरातात्विक महत्व का स्मारक, स्थल या कलाकृति मिल जाए। मेरी यही खोज इस बार मुझे सेमलपुर गाँव ले गई। “ - बताते हुए जतिन के मस्तिष्क में करीब सप्ताह भर पहले के सेमलपुर गाँव की छवि उभरने लगी। 


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उस दिन जतिन बोलेरो कार से अपने सहायक अमोल कुलकर्णी के साथ किसी पुराने स्मारक, शिलालेख या सिक्के की तलाश में घूमते हुए अनजान रास्ते की ओर बढ़ा जा रहा था। 

“ अच्छी परेड हो रही है पिछले चार दिनों से। “ - सहायक कुलकर्णी बोला - “ इतने स्थानों पर घूमने के बाद भी हमें अपने काम की कोई एक भी चीज नहीं मिली। “

अमोल कोई 35 साल का युवक था। 

“ बात तुम्हारी सही है। “ - सहमति जताते हुए जतिन बोला - “ लेकिन, कर भी क्या सकते हैं। पुरातत्वविद् के इस पेशे में धैर्य की बहुत अधिक आवश्यकता होती है। मिलने हो तो खुदाई में पूरे के पूरे नगर ही मिल जाते है और ना मिलने हो तो पुराने सिक्के तक नहीं मिलते। “

“ एक बात समझ में नहीं आई सर ! “ - एकाएक ही 22 वर्षीय ड्राईवर स्वराज बोला - “ ये कैसे पता चलता है कि किस जगह खुदाई करने पर पुरातात्विक वस्तुयें मिलेगी ? “

स्वराज की बात सुनकर जैन और कुलकर्णी दोनों ही हँस पड़े। 

“ क्या हुआ सर! मैंने कोई जोक सुना दिया क्या ? “ - असमंजस भरे स्वर में स्वराज ने पूछा। 

“ पुरातत्व विभाग में इस तरह के प्रश्न मजाक से अधिक की हैसियत रखते भी नहीं है। “ - हँसते हुए जैन बोला - “ तुम अभी नये हो ना, इसीलिए तुमको ज्यादा जानकारी नहीं है। “

“ आप सही कह रहे हैं सर! मुझे ज्यादा कुछ पता नहीं है। तभी तो पूछा मैंने। “

“ आम तौर पर किसी कृषि भूमि पर या किसी जगह मकान बनाने के लिए नींव खोदते समय लोगों को अगर कोई पुरातात्विक महत्व की कोई ऐसी वस्तु मिलती है जो दिखने में काफी पुरानी हो तो वे सरकार को इसकी सूचना देते हैं और सरकार पुरातत्व विभाग को इसकी खबर देता है। इसके बाद अगर प्राप्त हुई वस्तु अपनी प्राचीनता पर खरी उतरती है तो वैसी ही और वस्तुओं के मिलने की उम्मीद में उस स्थान विशेष की व्यापक खुदाई की जाती है। ऐसी खुदाई में कभी कभी तो कुछ और भी पुरानी चीजें मिल जाती है, कभी कुछ और मिल नहीं पाता, तो कभी - कभी पूरे के पूरे नगर ही मिल जाते हैं। “

“ अच्छा ! “

“ और नहीं तो क्या। “ - जतिन बोला - “ तुमने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो के बारे में जरूर सुना होगा। “

“ हाँ। सुना है ना। “

“ उनकी खोज ऐसे ही तो हुई थी। “

“ ओह, अब समझा। “ - स्वराज बोला - “ लेकिन, अगर किसी को अपनी कृषि भूमि पर या मकान की नींव खोदेते समय पुरातात्विक महत्व की कोई वस्तु मिलती है और इस बात को वह छिपा देता है, उस वस्तु के बारे में सरकार को बताता ही नहीं है, तब ? “

“ इसकी संभावना न के बराबर है। “ - जतिन समझाते हुए बोला - “ इसकी पहली वजह तो यह है कि ऐसी किसी पुरानी पुरातात्विक वस्तु जिस व्यक्ति को मिलती है, वह किसी से तो उसका जिक्र करता ही है और बात की बात में बात फैलते हुए पंचायत या नगरपालिका, नगर निगम आदि तक पहुँच जाती है और वे आगे पुरातत्व विभाग तक ये सूचना पहुँचा ही देते हैं। “

“ और दूसरी वजह ? “

“ ऐसी कोई वस्तु जिसको मिलती है, उसके लिए उस वस्तु का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन पुरातत्व विभाग के लिए तो होता है। ऐसी स्थिति में पुरातात्विक महत्व की वस्तु को छिपाने से भला किसी को क्या लाभ होगा ! “

“ सही है सर! “ - कहते हुए स्वराज ने गाड़ी रोक दी। 

“ क्या हुआ स्वराज ? गाड़ी क्यों रोक दी ? “ - कुलकर्णी ने पूछा। 

“ हम किसी गाँव में आ पहुँचे हैं। “

“ ओह, मतलब फिर से वही सब करना पड़ेगा ? “ - अमोल उदासीन स्वर में बोला। 

“ अब हताश होने की जरूरत नहीं है। चलो शुरू हो जाओ। “ - जतिन बोला। 

“ ठीक है सर ! “ - बोलते हुए अमोल कुलकर्णी गाड़ी का दरवाजा खोलते हुए बाहर निकला। 

हरे भरे पेड़ - पौधों के अलावा अगर कुछ दिखाई दे रहा था, तो वह मुख्य सड़क जिस पर गाड़ी से चलते हुए वे वहाँ पहुँचे थे। 

गाड़ी का काँच नीचे गिराते हुए जतिन बोला - “ अब यहाँ यूँ ही खड़े होकर देखने से तो बात बननी नहीं है। तुमको गाँव के भीतर जाना होगा। “

“ वो तो मैं जा ही रहा हूँ। “ - कुलकर्णी बोला - “लेकिन, मुझे लग नहीं रहा कि यहाँ भी कुछ मिल पायेगा। बोल रहा हूँ, यहाँ सिर्फ वक्त ही बर्बाद होना है। मिलने वाला कुछ नहीं। “

गाड़ी के भीतर ड्राईविंग सीट पर ही बैठा स्वराज पीछे की ओर घूमते हुए बोला - “ सर! अभी तक हम जितनी भी जगहों पर गए है, उन सबमें कुलकर्णी सर अकेले ही जानकारी लेने निकले है। मुझे तो लगता है, समस्या कुलकर्णी सर में ही है। इस बार आप भी जाइये। हो सकता है कि कुछ काम की चीज मिल ही जाये। “

“ ऐसा कहीं होता है भला! “ - हँसते हुए जैन बोला - “ कुछ मिलना होगा तो कुलकर्णी को ही मिल जायेगा। “

“ अभी तक तो मिला नहीं। “



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