आज फिर दिन निकला,
आज फिर नयी सुबह आयी।
सोचते हैं हर रोज,
कि,
आज तो करेंगे कुछ ऐसा,
बन जाए जिससे,
दिन हमारा सार्थक,
और,
एक एक दिन से मिलकर बन जाए,
जीवन हमारा सार्थक।
पर,
हाय नियति!
कैसे संभव है ऐसा हो पाना।
जब रात-दिन,
सुबह-शाम,
सोते-जागते,
पल-प्रतिपल,
हर क्षण;
तेरी ही यादें,
तेरी ही बातें,
तेरे ही खयाल,
छाये रहते हैं,
दिल और दिमाग में।
चाहा था हमने,
जीवन को संवारना,
दिल को संभालना।
पर,
हुआ न जाने क्या,
कि,
न जीवन संवरा,
न दिल संभला।
और,
आज हालात ये हैं कि,
जीवन रह गया है उलझकर,
दिल के रिश्तों में।
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