शहर में हर तरफ एक खामोशी थी,
देखा मैंने जिधर भी,
छाया था सिर्फ अंधेरा।
नहीं था ऐसा कोई,
मिटा पाता जो,
उस अंधेरे को।
खोजा मैंने बहुत,
पर मिला नहीं कोई।
था ही नहीं कोई उस शहर में,
जो मिलता मुझे वहां।
थक गया जब मैं खोजते खोजते,
आयी एक आवाज पीछे से-
''लौट जाओ मुसाफिर,
ये शहर नहीं है दया के काबिल।
यहां के वासियों ने ही किया था अंधेरा,
खुद अपने शहर में।
और खो गए वे ही,
उसी अंधेरे में।''
12 Comments
बहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत बहुत धन्यवाद कविताजी ।
Deleteजन्म दिन की शुभकमनायें.
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteआपका बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteलाजवाब
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।
ReplyDeleteविजय जी, सर्वप्रथम जन्मदिन की लेट ही सही हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteइन अंधेरो के बीच भी कोई न कोई जरूर रहता हैं जो रोशनी की एक किरण बन कर आता है। हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। यदि कोई नहीं हैं तो हम खुद तो हैं। हमसे जितना होगा उतना अच्छा काम करेंगे। मुझे आपकी यह प्रस्तुति बहुत ही निराशाजनक लगी।
बहुत बहुत धन्यवाद।इतनी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत आभार।
ReplyDeleteपाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में अपने वज़ूद को भुलाकर भटकती मानव जाति निश्चित ही चिंता का विषय है। इसी पृष्ठभूमि पर यह कविता लिखी गयी।
सुन्दर....
ReplyDeleteअंधेरा कैसा भी हो, प्रकाश आता ही है
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ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद।