अंधेरा

शहर में हर तरफ एक खामोशी थी,
देखा मैंने जिधर भी,
छाया था सिर्फ अंधेरा।
नहीं था ऐसा कोई,
मिटा पाता जो,
उस अंधेरे को।
खोजा मैंने बहुत,
पर मिला नहीं कोई।
था ही नहीं कोई उस शहर में,
जो मिलता मुझे वहां।
थक गया जब मैं खोजते खोजते,
आयी एक आवाज पीछे से-
''लौट जाओ मुसाफिर,
ये शहर नहीं है दया के काबिल।
यहां के वासियों ने ही किया था अंधेरा,
खुद अपने शहर में।
और खो गए वे ही,


उसी अंधेरे में।''

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ...
    आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं

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  2. विजय जी, सर्वप्रथम जन्मदिन की लेट ही सही हार्दिक शुभकामनाएं।

    इन अंधेरो के बीच भी कोई न कोई जरूर रहता हैं जो रोशनी की एक किरण बन कर आता है। हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। यदि कोई नहीं हैं तो हम खुद तो हैं। हमसे जितना होगा उतना अच्छा काम करेंगे। मुझे आपकी यह प्रस्तुति बहुत ही निराशाजनक लगी।

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  3. बहुत बहुत धन्यवाद।इतनी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आपका बहुत बहुत आभार।

    पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण में अपने वज़ूद को भुलाकर भटकती मानव जाति निश्चित ही चिंता का विषय है। इसी पृष्ठभूमि पर यह कविता लिखी गयी।

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