मन में उठने वाले भावों को लिपिबद्ध करने का एक लघु प्रयास

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

रहस्यमयी प्रतिमा Ch - 34 श्रद्धा की आपबीती


 “हम फिर से सोने जा रहे हैं।” - स्नेहा बोली - “पर तुम तो बहुत जल्दी नहीं उठ गई हो ?”

“मैं तो रोज 4 बजे ही उठ जाती हूं।” - श्रद्धा बोली - “उठकर जब तक स्नान ध्यान ना कर लूं, रसोई में कदम नहीं रखती।”

स्नेहा आश्चर्य से श्रद्धा को देख रही थी, मानो वह कोई अजूबा हो। श्रद्धा से वह कुछ पूछना चाहती थी, लेकिन इस समय सोना उसे ज्यादा जरूरी लग रहा था। इसीलिए वह कुछ बोली नहीं और सोने के लिए बेडरूम की ओर चल पड़ी।

विशाल पहले ही जा चुका था।


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“वाह! नाश्ता तो तुम बहुत अच्छा बनाती हो।” - ब्रेकफास्ट करते हुए स्नेहा बोली।

“हाँ, ब्रेड पकोड़े भी लाजवाब बने हैं।” - विशाल भी तारीफ करते हुए बोला।

“शुक्रिया।” - धीमे से मुस्कुराते हुए श्रद्धा बोली।

“तुम खड़ी क्यों हो ? तुम भी बैठकर नाश्ता करो ना।” - श्रद्धा को खड़े देखकर स्नेहा बोली।

“नहीं। मैं ऐसे ही ठीक हूँ।”

“कल रात को डिनर के समय भी तुम पूरा टाइम ऐसे ही खड़ी रही। हमारे बाद ही डिनर किया।”

श्रद्धा कुछ बोली नहीं बस मुस्कुरा दी।

“ऐसे रोज रोज नहीं चलेगा।” - कहते हुए स्नेहा अपनी चेयर से उठी और श्रद्धा को जबरदस्ती एक चेयर पर बैठाते हुए बोली - “ब्रेकफास्ट हो या डिनर, तुमको हमारे साथ ही लेना होगा।”

इसके बाद स्नेहा फिर से अपनी चेयर पर बैठी और नाश्ता करने लगी।

“सुबह इतना जल्दी उठना, पूजा अर्चना करना, इतना अच्छा डिनर और ब्रेकफास्ट बनाना - ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं लगता कि तुम कोई बेसहारा या अकेली लड़की हो।” - सोचा तो स्नेहा ने यही था कि ब्रेकफास्ट के बाद ही वह श्रद्धा से उसके बारे में पूछेगी। लेकिन एक क्राइम रिपोर्टर होने की वजह से उसके लिए अपनी जिज्ञासा को रोके रखना मुश्किल हो रहा था। इसीलिए उत्सुकता वश वह पूछ ही बैठी - “कौन हो तुम ?”

स्नेहा के इस आकस्मिक सवाल से भी श्रद्धा को कोई खास फर्क नहीं पड़ा। सहज ढंग से जवाब देते हुए वह बोली - “वक्त और हालात इंसान से कुछ भी करवा सकते हैं। हाँ, यह सच है कि मैं कोई बेसहारा या मजबूर लड़की नहीं हूँ। लेकिन, भाग्य ने खेल ही कुछ ऐसा खेला कि मुझे अपने ही गाँव - घर से बेघर होकर भागना पड़ा।”

इसके बाद श्रद्धा ने गांव से भागकर शहर आने की अपनी वही कहानी स्नेहा को कह सुनायी, जो उसने दक्ष को सुनायी थी।

“क्या!” - श्रद्धा की पूरी कहानी सुनकर स्नेहा हैरत भरे स्वर में बोली - “तुम घर से भागकर आई हो, क्योंकि तुम्हारे चाचा तुम्हारी शादी किसी प्रौढ़ शराबी से करना चाहते थे !”

“हाँ। यही तो कहा मैने।”

“ओह, ओह!”

“क्या हुआ ? आप इतना हैरान क्यों लग रही हो ?”

“तुम…तुम वही हो, जिसके बारे में दक्ष ने मुझे बताया था।” 

“दक्ष!”

“अरे, दक्ष! वही, जिसके घर तुम कुछ दिन पहले रात को पहुंची थी।”

“हां।” - याद करते हुए श्रद्धा बोली - “वही ना, जो बात - बात में रिवॉल्वर निकाल लेता है ?”

“हां, वही। मुस्कुराते हुए स्नेहा बोली - “मैने कहा था ना विशाल! श्रद्धा का नाम मैंने पहले भी सुना हुआ है।”

विशाल कुछ बोला नहीं। उसने बस सहमति में सिर हिलाया और शांति से ब्रेकफास्ट करता रहा।

“पर, आप कैसे जानती हो उस रिपोर्टर को ?” - श्रद्धा ने पूछा।

“मैं कैसे जानती हूँ ! अरे, कैसे नहीं जानूंगी! हम एक ही अखबार में तो काम करते हैं।”

“अच्छा। तो दक्ष ने आपको मेरे बारे में पहले ही बता दिया था ?”

“हाँ। और तुमको ऐसे अचानक गायब नहीं होना चाहिए था। पता है, उसने कितनी कोशिश की तुमको ढूंढने की! और जब उसने मुझे तुम्हारे बारे में बताया, तो मैं भी बहुत चिंतित हो गई थी।”

“चिंतित ?.. आप ?.. पर क्यों ? आप तो मुझे जानती तक नहीं थी।”

“अरे, ऐसे अनजान शहर में गांव से भागकर आई एक अकेली लड़की घूम रही हो तो चिंता तो होगी ही ना।” - नाश्ता करते हुए स्नेहा बोल रही थी - “वैसे भी, इसे मेरी फितरत समझो या कमजोरी, किसी को परेशानी में देखकर मैं खुद परेशान हो उठती हूँ और मदद के लिए जो हो सकता है, वो मैं करती हूं।”

“ये तो आपका बड़प्पन है।” - श्रद्धा कृतज्ञता भरे स्वर में बोली।

“वैसे, तुमने बताया नहीं कि दक्ष के घर से जाने के बाद तुम बिना बताए कहां चली गई थी और फिर मिसेज मेहता के घर कैसे पहुंच गई ?”

“मैं दक्ष को परेशान नहीं करना चाहती थी। इसीलिए परसों सुबह बिना बताए ही उसके घर से निकल गई। अब मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या तो अपने लिए सिर छुपाने की जगह ढूंढना ही थी। काम तो कहीं भी कुछ भी मिल जाता, पर रहने को जगह मिल नहीं रही थी। परसों रात जैसे तैसे मैंने रेल्वे स्टेशन पर ही बितायी। फिर कल रात को भटकते हुए मैं मिसेज मेहता के यहां पहुंची तो उन्होंने मुझे आपके घर पहुंचा दिया।”

“अच्छा! पर अब तुमको चिंता करने की बिल्कुल जरूरत नहीं है। तुम यहां आराम से रह सकती हो। वैसे भी इस घर में” - विशाल की तरफ संकेत करते हुए स्नेहा बोली - “हम दोनों ही रहते हैं। मैं काफी दिनों से मेड की तलाश में थी।”

“और, मेरे रूप में आपकी यह तलाश पूरी हो गई।” - मुस्कुराते हुए श्रद्धा बोली।

“हाँ। लेकिन अब से तुम इस घर की सदस्य हो। ये समझो कि तुमको रहने के लिए सिर्फ घर ही नहीं मिला है, बल्कि एक परिवार भी मिला है। आज से तुम मुझे अपनी बहन समझो।” - स्नेहा के आदेश भरे स्वर में ऐसी कशिश थी कि श्रद्धा और कुछ बोल ही नहीं पाई।

वह इमोशनल हो गई और उसकी आँखें थोड़ी नम भी हो उठी। अचानक ही खड़ी होकर वह स्नेहा के गले से लग गई। उसकी नम आँखों से आंसू की कुछ बूंदे छलक पड़ी। स्नेहा उसके इस व्यवहार से चकित तो हुई। पर, साथ ही खुश भी बहुत हुई, क्योंकि उसने किसी का अच्छा किया था। एक भलाई का काम किया था और यही तो वो वजह थी, जो उसे खुशी देती थी। बेवजह हर किसी की मदद करना। वैसे, श्रद्धा की मदद करने के पीछे स्नेहा का स्वार्थ भी था ही।

इधर ब्रेकफास्ट खत्म करते हुए विशाल उठा ही था कि उसे इन दोनों बहनों का यह भव्य संगम देखने को मिला। वह भी थोड़ा भावुक हो उठा और उसके चेहरे पर भी खुशी की हल्की सी चमक आ गई। 

कहने की जरूरत नहीं कि अब श्रद्धा भी स्नेहा और विशाल के परिवार का एक सदस्य बन चुकी थी।


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