सालों पहले हुए थे तैयार रेंगने को।
क्यों ?
क्यों ना होते !
सब कोई होते है ,
उम्र के एक पड़ाव में।
उस दौर में ,
जबकि ,
असंभव सपनों को संभव करने की ,
हर मुमकिन कोशिश नाकाम हो चुकी होती है।
क्यों ?
क्योंकि ,
किशोरवय में निकल आये ' परों ' से उड़ान भरने को आतुर ,
कुछ ही दूर तक उड़ पाता है वो ,
और ,
होता है आभास उसे ,
उन बन्धनों का ,
जकड़ा है जिनसे वो सदा से ही।
सबसे बड़ा बन्धन होता है इनमें ,
' कुछ तो लोग कहेंगे '
और एक होता है ,
' असफल हो गए तो ? '
बन्धन , जो रोकते हैं इंसान को कुछ नया करने से।
बन्धन , जो रोकते हैं इंसान को कुछ अलग करने से।
करता है जब इंसान ,
दुःसाहस इन बन्धनों को तोड़ने का
और हो जाता है त्रुटिवश असफल अपने इनोवेशन में।
तब ,
प्रकट हो जाते है अपने साकार रूप में ये बन्धन ,
और लगते है कतरने ' पर ' उसके।
तब ,
करना पड़ता है समझौता उसे आम जिन्दगी से ,
और होना पड़ता है विवश रेंगने को।
हुए थे तैयार रेंगने को हम भी ,
रेंगते रहे सालों साल।
लेकिन अब ,
निकल आए हैं पर फिर से ,
हो रहे है आतुर उड़ान भरने को।
कितना उड़ पायेंगे ?
बन्धनों को कैसे तोड़ पायेंगे ?
और वो भी अब ?
उम्र के इस पड़ाव में !
रहने देते है इस बार ,
सवालों को सवाल ही
भरते हैं उड़ान फिर से।
हो गए असफल भी तो क्या ,
इतना ही तो होगा ,
कि कतर दिये जायेंगे ' पर ' फिर से !
रेंगने का विकल्प तो सुरक्षित है ही।